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________________ तिलोयपण्णत्ती [३. ४१ ताणं मूले उरि समतदो दिव्ववेदीओ। पुचिल्लवेदियाणं सारिच्छं वण्णणं सव्वं ॥ ४१ वेदीणभंतरए वणसंढा वरविचित्ततरुणियरा । पुक्खरिणीहिं समग्गा तष्परदो दिव्यवेदीओ ॥ ४२ । कूडा गदा। कुडोवरि पत्तेक जिणवरभवणं हेवेदि एक्केकं । वररयणकंचणमयं विचित्तविण्णासरमणिज्ज ॥ ४३ .. चउगोउरा तिसाला वीहि पैडि माणथंभणवथूहा। वेणधयचेत्तखिदीओ सब्वेसु जिणणिकेदेसुं॥ ४४ Yणंदादिओ तिमहल तिपीढपुव्वाणि धम्मविभवाणि । चउक्षणमझेसु ठिदा चेत्ततरू तेसु सोहंति ॥ १५ (हारकरिवसहखगाहिर्वसिहिससिरविहंसपउमचक्कधया । एक्केक्कमट्ठजुदसयमेक्केकं अट्ठसय खुल्ला ॥ ४६ विदणभिसेयणचणसंगीआलोयमंडधेहि जुदा । कीडणगुणणगिहेहि विसालवरपट्टसालेहि ॥ ४७ सिरिदेवीसुददेवीसव्वाणसणकुमारजक्खाणं । रूवाणि अट्ठमंगल देवच्छंदमि जिणणिकेदेसु ।। ४८ इन कूटोंके मूलभागमें और ऊपर चारों तरफ दिव्य वेदियां हैं । इन वेदियोंका सम्पूर्ण वर्णन वेदियों जैसा ही समझना चाहिये ॥ ४१ ॥ ___ इन वेदियोंके भीतर उत्तम एवं विविध प्रकारके वृक्षसमूहसे व्याप्त और वापिकाओंसे परिपूर्ण वनसमूह हैं, फिर इनके आगे दिव्य वेदियां हैं ॥ ४२ ॥ इसप्रकार कूटोंका वर्णन समाप्त हुआ। प्रत्येक कूटके ऊपर एक एक जिनेन्द्रभवन है, जो उत्तम रत्न एवं सुवर्णसे निर्मित, तथा विचित्र विन्याससे रमणीय है ॥ ४३ ॥ सब जिनालयोंमें चार चार गोपुरोंसें संयुक्त तीन कोट, प्रत्येक वीथीमें एक मानस्तंभ व नौ स्तूप, तथा ( कोटोंके अन्तरालमें ) क्रमसे वनभूमि, ध्वजभूमि और चैत्यभूमि होती हैं ।। ४४ ॥ उन जिनालयोंमें चारों बनोंके मध्यमें स्थित तीन मेखलाओंसे युक्त नन्दादिक वापिकायें, और तीन पीठोंसे संयुक्त धर्मविभव, तथा चत्यवृक्ष शोभायमान होते हैं ॥ ४५ ॥ ध्धजभूमिमें सिंह, गज, वृषभ, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, पद्म और चक्र, इन चिह्नोंसे अंकित प्रत्येक चिह्नवाली एकसौ आठ महाध्वजायें, और एक एक महाध्वजाके आश्रित एकसौ आठ क्षुद्रध्वजायें होती हैं ॥ ४६॥ उपर्युक्त जिनालय वंदनमंडप, अभिषेकमंडप, नर्तनभंडप, संगीतमंडप और आलोक (प्रेक्षण ) मंडप, इन मंडपों तथा क्रीडागृह, गुणनगृह अर्थात् स्वाध्यायशाला एवं विशाल व उत्तम पट्टशालाओंसे ( चित्रशालाओंसे ) युक्त होते हैं ॥ ४७॥ जिनमन्दिरोंमें देवच्छंदके भीतर श्रीदेवी, श्रुतदेवी,तथा सर्वाह्न और सनत्कुमार यक्षोंकी मूर्तियां एवं आठ मंगल द्रव्य होते हैं ॥ ४८॥ १ द दिव्वदेवीओ. २ द हुवेदि. ३ द बविण्णाणरमणिजं. ४ द व परि. ५ वणवधय. ६ द ब खगावह'. ७ द चंदणाभिसेय . ८ द देवंगचाणि; व देवचाणि: : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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