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________________ [ तिदियो महाधियारो ] भवजण मक्खणणं मुणिंददेविंदपणदपयकमलं । णमिय अभिणंदणेस भावणलोयं परूवेमो ॥ १ "भावणणिवासखेत्तं भवणसुराणं वियप्पचिण्हाणि । भवणाणं परिसंखा इंदाण पमाणणामाई ॥ २ दक्खिणउत्तरईदा पत्तेक्कं ताण भवणपरिमाणं । अप्पमहद्धिय मज्झिमभावणदेवाण भवैणवालं च ॥ ३ भवणं वेदी कूडा जिणघरपासादहंदभूदीओ | भवणामराण संखा आउपमाणं जहाजोग्गं ॥ ४ उस्सेहो हिपमाणं गुणठाणादीणि एक्कसमयम्मि । उप्पजणमरणाण य परिमाणं तह य आगमणं ॥ ५ भावणलोयस्साऊबंधणपावोग्गभावभेदा य । सम्मत्तग्रहणहेऊ अहियारा इत्थ चडवीसं ॥ ६ रयणप्पहपुढवीए खरभाए पंकबहुलभागम्मि । भवणसुराणं भवणाई होंति वररयणसोहाणि ॥ ७ सोलससइस्समेत्तो खरभागो पंकबहुलभागो वि । चउसीदिसहस्वाणि जोयणलक्ख दुबे मिलिदा || ८ १६००० । ८४००० । | भावणदेवाणं णिवासखेत्तं गदं । जो भव्य जीवोंको मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं, तथा जिनके चरणकमलों में मुनीन्द्र अर्थात् गणधर एवं देवाके इन्होंने भी नमस्कार किया है, ऐसे अभिनन्दन स्वामीको नमस्कार करके भावन - लोकका निरूपण करते हैं ॥ १ ॥ भवनवासियोंका निवासक्षेत्र, भवनासी देवोंके भेदें, उनके चिह्न, भवनोंकी संख्या, इन्द्रोंका प्रमाण, इन्द्रोंके नाम, दक्षिण इन्द्र और उत्तर इन्द्र उनमेंसे प्रत्येकके भवनका परिमाण, अल्पर्द्धिक, महर्द्धिक और मध्यमर्द्धि भवनवासी देवों के भवनोंका व्यांस ( विस्तार ), भवन, "वेदी, कूटै, जिनमन्दिर, प्रासाद, इन्द्रोंकी "विभूति, भवनवासी देवोंकी संख्या, यथायोग्य आयुका प्रमाण, उनके शरीरकी उंचाईका प्रमाण, उनके अवधिज्ञानके क्षेत्रका प्रमाण, गुणस्थान।दिक, एक समय में उत्पन्न होनेवाले और मरनेवाले भवनवासी देवोंका प्रमाण, तथा आगमैन, भवनवासी देवोंकी आयु बन्धयोग्य भावोंके भेद, और सम्यक्त्व ग्रहण के कारण, इसप्रकार इस तृतीय महाधिकारमें ये चौ अधिकार हैं । २-६॥ २४ रत्नप्रभा पृथिवीके खर भाग और पंकबहुल भाग में उत्कृष्ट रत्नोंसे शोभायमान भवनवासी देवोंके भवन हैं ॥ ७ ॥ इन दोनों भागोंमेंसे खर भाग सोलह हजार योजन और पंकबहुल भाग चौरासी हजार योजनप्रमाण मोटा है | उक्त दोनों भागोंकी मुटाई मिलकर एक लाख योजनप्रमाण है ॥ ८ ॥ खर भागकी मुटाई १६००० + पंकबहुल भाग ८४००० = १००००० योजन । भवनवासी देवोंके निवासक्षेत्रका कथन समाप्त हुआ । १ द ब भवणपुराणं. २ द् भवणं वासं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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