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________________ १०८] तिलोयपण्णत्ती [२. ३५८ सम्मत्तरहिदचित्तो जोइसमंतादिएहि वर्दृतो । णिरयादिसु बहुदुक्खं पाविय पविसइ णिगोदम्मि ॥ ३५८ ।दुक्खसरूवा समत्ता । धम्मादीखिदितिदये णारइया मिच्छभावसंजुत्ता। जाइभरणेण केई केई दुव्वारवेदणाभिहदा ॥ ३५९ केई देवाहितो धम्मणिबद्धा कहा व सोदूर्ण । गिण्हते सम्मत्तं अणंतभवचूरणणिमित्तं ॥ ३६० पंकपहापहृदीणं णारइया तिदसबोहणेण विणा । सुमरिदजाई दुक्खप्पहदा गेण्हंति' सम्मत्तं ॥ ३६१ ।दसणगहणं गदं। मजं पिबंता पिसिदं लसंता जीवे हणते मिगलाण तत्ता । णिमेसमेत्तेण सुहेण पावं पार्वति दुक्खं णिरए अणतं ॥ ३६२) लोहकोहभयमोहबलेणं जे वदंति वयणं पि असञ्चं । ते णिरंतरभये उरुदक्खे दारुणम्मिणिरयम्मि पडते ॥३६३ छेत्तण भित्तिं वधिदण पीय पट्टादि घेत्तण धणं हरता। अण्णेहि अण्णाअसऍहि मूढा भुंजंति दक्खं गिरयम्मि घोरे ॥ ३६४ जिसका चित्त सम्यग्दर्शनसे विमुख है तथा जो ज्योतिष और मंत्रादिकोंसे आजीविका ( वृत्ति) करता है, ऐसा जीव नरकादिकमें बहुत दुःखको पाकर निगोदमें प्रवेश करता है ॥ ३५८ ॥ दुःखके स्वरूपका वर्णन समाप्त हुआ। धर्मा आदि तीन पृथिवियोंमें मिथ्यात्व भावसे संयुक्त नारकियोंमेंसे कोई जातिस्मरणसे, कोई दुर्वार वेदनासे व्यथित होकर, और कोई धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाली कथाओंको देवोंसे सुनकर अनन्त भवोंके चूर्ण करने में निमित्तभूत ऐसे सम्यग्दर्शनको ग्रहण करते हैं ॥ ३५९-६० ।। पंकप्रभादिक शेष चार पृथिवियोंके नारकी जीव देवकृत प्रबोधके विना जातिस्मरण और वेदनाके अनुभवमात्रसे ही सम्यग्दर्शनको ग्रहण करते हैं ॥ ३६१ ॥ सम्यग्दर्शनके ग्रहणका कथन समाप्त हुआ। जो मद्यको पीते हैं, मांसकी अभिलाषा करते हैं, जीवोंका घात करते हैं, और मृगयामें तृप्त होते हैं, वे क्षणमात्रके सुखकेलिये पाप उत्पन्न करते हैं और नरकमें अनन्त दुखको पाते ___ जो जीव लोभ, क्रोध, भय अथवा मोहके बलसे असत्य वचन बोलते हैं, वे निरंतर भयको उत्पन्न करनेवाले, महान् कष्टकारक, और अत्यंत भयानक नरकमें पडते हैं ॥ ३६३ ॥ भीतको छेदकर, प्रिय जनको मारकर, और पट्टादिकको ग्रहण करके धनको हरने तथा अन्य सैकडों अन्यायोंसे मूर्ख लोग भयानक नरकमें तीव्र दुखको भोगते हैं ।। ३६४ ॥ १द गेण्णंति. २द ब °मग्गदं. ३ बणिमेसमोहण. ४द सुह ण पावंति. ५द गिरंतरभयं. ६ द पिंप, ब पियं. ७ द ब अण्णाअसहेइ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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