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________________ -२.३५७ ] बिदुओ महाधियारो [१०७ इह खेत्ते जह मणुवा पेच्छते मेसमाहिसजुद्धादि । तह णिरये असुरसुरा णारयकलहं पतुटमणा ॥ ३५० एक ति सग दस सतरस तह ये बावीसं होंति तेत्तीसं । जा अण्णवुमौ पावते ताव महा य बहुदुक्खं ॥ ३५१ णिरएसु णत्थि सोक्खं णिमेसमेत्तं पिणारयाण सदा । दुक्खाई दारुणाई वट्टते पञ्चमाणाणं ॥ ३५२ कदलीघादेण विणा णारयगत्ताणि आउअवसाणे । मारुदपहदब्भाइ व णिस्सेसाणिं विलीयते ॥ ३५३ एवं बहुविहदुक्खं जीवा पावंति पुवकददोसा । तदुदुक्खस्स सरूवं को सक्कइ वणि९ सयलं ॥ ३५४ सम्मत्तरयणपब्वदसिहरादो मिच्छभावखिदिपडिदो। णिरयादिसु अइदुक्खं पाविय पविसइ णिगोदमि ॥ ३५५ सम्मत्तं देसजमं लहिदूणं विसयहेदुणा चलिदो । णिरयादिसु अइदुक्खं पाविय पविसइ णिगोदम्मि ॥ ३५६ सम्मत्तं सयलजम लहिदूंणं विसयकारणा चलिदो । णिरयादिसु अइदक्खं पाविय पविसह णिगोदाम्म ॥ ३५७ इस क्षेत्रमें जिसप्रकार मनुष्य मैढ़े और भैंसे आदिके युद्धको देखते हैं, उसीप्रकार नरकमें असुरकुमार जातिके देव नारकियोंके युद्धको देखते हैं और मनमें सन्तुष्ट होते हैं ॥ ३५० ।। रत्नप्रभादिक पृथिवियोंमें नारकी जीव, जबतक क्रमशः एक, तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस अर्णवोपम ( सागरोपम ) पूर्ण होते हैं, तबतक बहुत भारी दुखको प्राप्त करते हैं ॥ ३५१ ॥ ___ नरकोंमें पचनेवाला नारकियोंको क्षणमात्रकेलिये भी सुख नहीं हैं, किन्तु उन्हें सदैव दारुण दुःखोंका अनुभव होता रहता है ॥ ३५२ ॥ नारकियोंके शरीर कदलीघात ( अकालमरण ) के विना आयुके अन्तमें वायुसे ताडित मेघोंके समान निःशेष विलीन हो जाते हैं ।। ३५३ ॥ इसप्रकार पूर्वमें किये गये दोषोंसे जीव नरकोंमें जिस नाना प्रकारके दुखको प्राप्त करते हैं, उस दुखके संपूर्ण स्वरूपका वर्णन करनेकेलिये भला कौन समर्थ हैं ? ॥ ३५४ ॥ सम्यक्त्वरूपी रत्नपर्वतके शिखरसे मिथ्यात्वभावरूपी पृथिवीपर पतित हुआ प्राणी नारकादिक पर्यायोंमें अत्यन्त दुःखको प्राप्तकर निगोदमें प्रवेश करता है ॥ ३५५ ।। सम्यक्त्व और देशचारित्रको प्राप्तकर यह जीव विषयसुखके निमित्त उससे ( सम्यक्त्व और चारित्रसे) चलायमान होजाता है, और इसीलिये वह नरकोंमें अत्यन्त दुःखको भोगकर निगोदमें प्रविष्ट होता है ।। ३५६ ॥ कभी सम्यक्त्व और सकल संयमको भी प्राप्तकर विषयोंके कारण उनसे चलायमान होता हुआ नरकोंमें अत्यन्त दुःखको पाकर निगोदमें प्रवेश करता है ॥ ३५७ ॥ ३ दब अणुमिसमेत्तं पि. ४ द पावी १द तसय. २ द जह अरउवमा, बजह अरडवुमा. पहसं णिगोदम्मि. ५ द लधुणं. ६ द णिरयादीअइदुक्खं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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