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________________ १०६ ] तिलोय पण्णत्ती [ २. ३४२ कच्छुरिकरकचसूजी खइरंगारादिविविहभंगीहिं । अण्णोण्णेजादणाभो कुणंति णिरएसु णारइया ।। ३४२ अइतित्तकडुवकत्थरिसत्ती दो मट्टियं अनंतगुणं । घम्माए णारइया थोवं ति चिरेण भुंजंति ॥ ३४३ अजगजमहिसतुरंगमखरोट्ठमज्जार मेर्सेपहुदोणं । कुथिताणं गंधादो अणंतगंधो हुवेदि आहारो ॥ ३४४ अदिकुणिममसुहृमण्णं स्यणप्पहपहुदि जाव चरिमखिदि । संखातीदगुणेणं दुगुच्छणिज्जा हु आहारो || ३४५ घम्माए आहारो कोसस्सब्भंतरम्मि ठिदजीवे । इह मारैदि गंधेणं सेसे कोसद्धवड्डिया सत्ती ॥ ३४६ १ । ३ । २ । ५ । ३ । ७ । ४ । २ २ २ पुष्यं बद्धसुराऊ भणतअणुबंधिअण्णदरउदया । णासियतिरयणभावा णरतिरिया केइ असुरसुरा ॥ ३४७ सिकंदाणणासिपत्ता महबलकाला य सासवला हि । रुद्दंबरिसा विलसिदणामो महरुद्दखरणामा ॥ ३४८ कालग्गिरुद्दणामा कुंभो' वेतरणिपहुदिअसुरसुरा । गंतूण वालुकंतं णारइयाणं पकोपंति ॥ ३४९ नरकोंमें कच्छुरि ( कपिकच्छु, केवाँच ), करौंत, सुई और खैरकी आग इत्यादि विविध प्रकारोंसे नारकी परस्परमें एक दूसरेको यातनायें किया करते हैं ॥ ३४२ ॥ धर्मा पृथिवी नारकी अत्यन्त तीखी और कड़वी कत्थरि ( कचरी या अचार ? ) की शक्तिसे अनन्तगुणी तीखी और कड़वी थोडीसी मट्टीको चिरकालमें खाते हैं ॥ ३४३ ॥ नरकोंमें बकरी, हाथी, भैंस, घोड़ा, गधा, ऊंट, बिल्ली और मैढे शरीरोंकी गन्धसे अनन्तगुणी दुर्गन्धवाला आहार होता है ॥ ३४४ ॥ आदिके सड़े हुए रत्नप्रभासे लेकर अन्तिम पृथिवीपर्यन्त अत्यन्त सड़ा, अशुभ और उत्तरोत्तर असंख्यात - गुणा ग्लानिकर अन्न आहार होता है ॥ ३४५ ॥ घर्मा पृथिवीमें जो आहार है, उसकी गन्धसे यहांपर एक कोसके भीतर स्थित जीव मर सकते हैं, इसके आगे शेष द्वितीयादिक पृथिवियों में इसकी घातक शक्ति, आधा आधा कोस और भी बढ़ती गई है ॥ ३४६ ॥ घर्मा १; शा; मेघा २; अंज. ; अरि. ३; मघ. ; माघ. ४ कोस । पूर्व देवायुका बन्ध करनेवाले कोई नर या तिर्थंच अनन्तानुबन्धीमेंसे किसी एकका उदय आजानेसे रत्नत्रयंको नष्ट करके असुरकुमार जातिके देव होते हैं ॥ ३४७ ॥ सिकतानन, असिपत्र, महाबल, महाकाल, श्याम और शबल, रुद्र, अंबरीष, विलसित नामक, महारुद्र, महाखर नामक, काल, तथा अग्निरुद्र नामक, कुम्भ और वैतरणि आदिक असुरकुमार जातिके देव तीसरी वालुकाप्रभा पृथिवीतक जाकर नारकियोंको क्रोधित कराते हैं ॥ ३४८-३४९ ॥ १ द ब सूजीए २ द ब अण्णेण ३द संत्तीदोमंधिअं, व संतीदोवमंधियं. ४ द ब तुरंग. ५ द कुधिताणं. ६ द ब मातहि. ७ अंबे अंबरिसी चेव, सामे य सबलेवि य । रोद्दोवरुद्द काले य, महाकालेत्ति आवरे ॥ ६८ ॥ असिपत्ते घणुं कुंभे, वालुवेयरणीवि य । खरस्सरे महाघोसे, एवं पण्णरसाहिया ॥ ६९ ॥ सूत्रकृतांगनिर्युक्तिः; प्रवचनसारोद्धारः पृष्ठ ३२१. ८ द बसवलं. ९ द ब कुंभी. १० द णारयप्पकोपंति. Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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