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________________ -२. ३४१ ] बिदुओ महाधियारो [१०५ छिण्णसिरी भिण्णकरा तुदियच्छी लंबमाणअंतचया । रुहिरारुणघोरतणा णिस्सरणा तं वर्ण पि मुचंति ॥ ३३४ गिद्धा गरुडा काया विहगा अवरे वि वजमयतोंडा । कादूणं खडुदंता ताणंगे ताणि कवलंति ॥ ३३५ अंगोवंगट्ठीणं चुण्णं कादूण चंडधादेहि । विउलवणाण मज्झे छुहिंति बहुखारदव्वाणि ॥ ३३६ ।। जह विलवयंति करुणं लेग्गंते जइ विचलणजुगलम्मि । तहविह सणं खंडिय छुहंति चुलीसु णारइया ॥३३७ लोहमयजुवइपडिमं. परदाररदाण गाढमंगेसुं । लायंते अइतत्तं खिवंति जलणे जलंतम्मि ॥ ३३८ मंसाहाररदाणं णारइया ताण अंगमंसाणि । छेत्तूण तम्मुहेसुं छुहंति रुहिरोल्लरूवाणिं ॥ ३३९ महुमजाहाराणं णारइया तम्मुहेसु अइतत्तं । लोहदवं धलंते विलीयमाणंगपब्भारं ॥ ३४० करवालपहरभिण्णं कूवजलं जह पुणो वि संघडदि । तह णारयाण अंग छिजंतं विविहसत्थेहि ॥ ३४१ अनन्तर, जिनके शिर छिद गये हैं, हाथ खण्डित होगये हैं, नेत्र व्यथित हैं, आंतोंके समूह लंबायमान हैं, और शरीर खूनसे लाल तथा भयानक हैं, ऐसे वे नारकी अशरण होकर उस वनको भी छोड़ देते हैं ॥ ३३४ ॥ गृद्ध, गरुड, काक, तथा और भी वज्रमय मुखवाले व तीक्ष्ण दांतोंवाले पक्षी नारकियोंक शरीरको काटकर उन्हें खाते हैं ॥ ३३५ ॥ ____ अन्य नारकी उन नारकियोंके अंग और उपांगोंकी हड्डियोंका प्रचंड घातोंसे चूर्ण करके उत्पन्न हुए विस्तृत घावोंमें बहुत क्षार पदार्थोंको डालते हैं ॥ ३३६ ॥ ___घावोंमें क्षार द्रव्योंके डालनेसे यद्यपि वे नारकी करुणापूर्ण विलाप करते हैं और चरणयुगलमें लगते हैं, तथापि अन्य नारकी उसप्रकार खिन्न अवस्थामें ही उन्हें खंड खंड करके चूल्हेमें डालते हैं ॥ ३३७ ।। ___ इतर नारकी परस्त्रीमें आसक्त रहनेवाले जीवोंके शरीरोंमें अतिशय तपी हुई लोहमय युवती स्त्रीकी मूर्तिको दृढ़तासे लगाते हैं और उन्हें जलती हुई आगमें फेंकते हैं ॥ ३३८ ॥ जो पूर्व भवमें मांसभक्षणके प्रेमी थे, उनके शरीरके मांसको काटकर अन्य नारकी रक्तसे भीगे हुए उन्हींके अंगके मांसखंडोंको उनके ही मुखोंमें डालते हैं ।। ३३९ ।। ___मधु और मद्यका सेवन करनेवाले प्राणियोंके मुखोंमें नारकी अत्यन्त तपे हुए द्रवित लोहेको डालते हैं, जिससे उनके अवयवसमूह भी पिघल जाते हैं ॥ ३४० ॥ जिसप्रकार तलवारके प्रहारसे भिन्न हुआ कुएँका जल फिरसे भी मिल जाता है, इसीप्रकार अनेकानेक शस्त्रोंसे छेदा गया नारकियोंका शरीर भी फिरसे मिल जाता है । तात्पर्य यह कि अनेकानेक शस्त्रोंसे छेदने पर भी नारकियोंका अकाल-मरण कभी नहीं होता ॥ ३४१॥ १ बणिच्छिण्णसिरा. २द ब वुदियंछा. ३ दब तव्वणम्मि. ४द खंडुदंताणगं, ब खडुदंता ताणंगं. ५ द असंगते, ब अंगते. ६ द परदाररदाणि. ७ ब लोहदव्वं. ८ द विविहसत्तेहिं. TP, 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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