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________________ १०४] - तिलोयपण्णत्ती । [२.३२५ फालिज्जते केई दारुणकरवत्तकंटभमुहेहि । अण्णे भयंकरहिं विझति विचित्तभल्लेहिं ॥ ३२५ लोहकलाहावट्टिदतेल्ले तत्तम्मि के वि छुम्भंति । पत्तण' पञ्चते जलंतजालुक्कडे जलणे ॥ ३२६ इंगालजालमुम्मुरअग्गीदज्झतमहसरीरा ते । सीदलजलमण्णंता धाविण पविसंति वइतरािण ॥ ३२७ कत्तरिसलिलायारा णारइया तत्थ ताण अंगाणि । छिंदंति दुस्सहावो पावंता विविहपीडाओ ॥ ३२८ जलयरकच्छवमंडूकमयरपहुदीण विविहरूवधरौ । अण्णोणं भक्खंते वइतरिणिजलम्मि' णारइया ॥ ३२९ विउलसिलाविच्चाले दट्टण बिलांणि झत्ति पविसंति । तत्थ वि विसालजालो उहदि सहसा महाअग्गी ॥ ३३० दारुणहुदासजालामालाहिं दज्झमाणसव्वंगा । सीदलछायं मण्णिय असिपत्तवणम्मि पविसंति ॥ ३३१ तत्थ वि विविहतरूणं पवणहदा तवअपत्तफलपुंजा । णिवडंति ताण उवरि दुप्पिच्छा वजदंडो व्व ॥ ३३२ चक्कसरकणयतोमरमोग्गरकरवालकोंतमुसलाणिं । अण्णाणि वि ताण सिरं असिपत्तवणाद् णिवडति ॥ ३३३ कोई नारकी करोंत ( आरी ) के काटोंके मुखोंसे फाड़े जाते हैं, और इतर नारकी भयंकर और विचित्र भालोंसे वेधे जाते हैं ॥ ३२५॥ ___ कितने ही नारकी जीव लोहेकी कड़ाहियोंमें स्थित तपे हुए तेलमें फेंके जाते हैं, और कितने ही जलती हुई ज्वालाओंसे उत्कट अग्निमें पकाये जाते हैं ।। ३२६ ।। कोयले और उपलोंकी आगमें जल रहा है महान् शरीर जिनका, ऐसे वे नारकी जीव शीतल जल समझ दौड़कर वैतरिणी नदीमें प्रवेश करते हैं ॥ ३२७ ॥ __उस वैतरिणी नदीमें कर्तरी (कैंची ) के समान तीक्ष्ण जलके आकार परिणत हुए दूसरे नारकी उन नारकियोंके शरीरोंको दुस्सह अनेक प्रकारकी पीडाओंको पहुंचाते हुए छेदते हैं ॥ ३२८॥ वैतरिणी नदीके जलमें नारकी कछुआ, मेंढक और मगरप्रभृति जलचर जीवोंके विविध रूपोंको धारण कर एक दूसरेका भक्षण करते हैं ॥ ३२९ ॥ पश्चात् वे नारकी विस्तीर्ण शिलाओंके बीचमें बिलोंको देखकर झटपट उनमें प्रवेश करते है, परन्तु वहांपर भी सहसा विशाल ज्वालाओंवाली महान् अग्नि उठती है ॥ ३३० ॥ पुन: जिनके सम्पूर्ण अंग तीक्ष्ण अग्निकी ज्वालाओं के समूहोंसे जल रहे हैं, ऐसे वे ही नारकी शीतल छाया जानकर असिपत्र वनमें प्रवेश करते हैं ॥ ३३१ ॥ वहांपर भी विविध प्रकारके वृक्षोंके गुच्छे, पत्र और फलोंके पुंज पवनसे ताडित होकर उन नारकियोंके ऊपर दुष्प्रेक्ष्य ( अदर्शनीय ) वज्रदण्डके समान गिरते हैं ॥ ३३२ ॥ इसके अतिरिक्त उस असिपत्रवनसे चक्र, बाण, कनक ( शलाकाकार ज्योतिःपिंड ), तोमर ( बाणविशेष ), मुद्गर, तलवार, भाला, मूसल तथा और भी अस्त्र-शस्त्र उन नारकियोंके सिरपर गिरते हैं ॥ ३३३ ॥ ... १ द पुरूणं. २ द दुस्सहावे. ३ द विविहस्सयस्वधरा. ४ द भक्खता. ५ द ब जलचरंभिः ६ द अंति, बजंति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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