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________________ तिलोयपण्णत्ती [२. २७९ होंति णपुंसयवेदा णारयजीधा य दव्वभावेहिं । सयलकसायासत्ता संजुत्ता णाणछक्केण ॥ २७९ सम्वे गारहया खलु विविहेहिं असंजमोह परिपुण्णा । चक्षुमचक्खूओहीदसणतिदएण जुत्ता य ॥ २८० भावेसुं तियलेस्सा ताओ किण्हा य णीलकाओदा । दम्वेणुक्कडकिण्ही भव्वाभन्वा य ते सव्वे ॥ २८१ छस्सम्मत्ता ताई उवसमखइयाइवेदगंमिच्छो । सासणमिस्सौ य तहा संणी आहारिणो अणाहारा ॥ २८२ सायारअणायारा उवयोगा दोषिण होंति तेसिं च । तिब्वकसाएण जुदा तिब्बोदयअप्पसत्तपयडिजुदा ॥ २८३ । गुणठाणादी सम्मत्ता। पढमधरतमसण्णी पढमबिदियासु सरिसओ जादि । पढमादीतदियंत पक्खि भुयंगादि यायए' तुरिमं ॥२८४ पंचमखिदिपरियंत सिंहो इत्थी वि छ?खिदितं । आसत्तमभूवलयं मच्छो मणुवो य वञ्चति ॥ २८५ असगछक्कपणचउतियदुगवारो य सत्तपुढवीसु । कमसो उप्पजते असंणिपमुहाइ उक्कस्से ।। २८६ . । उप्पण्णमाणजीवाणं वण्णणा सम्मत्ता। अवधि, कुमति, कुश्रुत और विभंग. इन छह ज्ञानोंसे संयुक्त; विविध प्रकारके असंयमों ( अविरतिभेदों ) से परिपूर्ण; चक्षु, अचक्षु, अवधि, इन तीन दर्शनोंसे युक्त; भावकी अपेक्षा कृष्ण, नील,कापोत, इन तीन लेश्याओं और द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट कृष्ण लेश्यासे सहित; भव्यत्व और अभव्यत्व परिणामसे युक्त; औपशमिक, क्षायिक, वेदक, मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, इन छह सम्यक्त्वोंसे सहित; संज्ञी'; आहारक व अनाहारक; इसप्रकार चौदह मार्गणाओंमेंसे भिन्न भिन्न मार्गणाओंसे सहित होते हैं ॥ २७८-२८२ ॥ ___ उन नारकी जीवोंके साकार ( ज्ञान ) और निराकार (दर्शन) दोनों ही उपयोग होते हैं। ये नारकी तीव्र कषाय और तीव्र उदयवाली पाप-प्रकृतियोंसे युक्त होते हैं ॥ २८३ ॥ इसप्रकार गुणस्थानादिका वर्णन समाप्त हुआ । प्रथम पृथिवीके अंततक असंज्ञी, तथा प्रथम और द्वितीयमें सरीसृप जाता है । पहिलीसे तीसरी पृथिवीपर्यन्त पक्षी, तथा चौथीतक भुजंगादिक उत्पन्न होते हैं ॥ २८४ ॥ पांचवीं पृथिवीपर्यन्त सिंह, छठी पृथिवीतक स्त्री, और सातवीं भूमितक मत्स्य एवं मनुज ( पुरुष ) ही जाते हैं ॥ २८५ ॥ उपर्युक्त सात पृथिवियोंमें क्रमसे वे असंज्ञी आदिक जीव उत्कृष्ट रूपसे आठ, सात, छह, पांच, चार, तीन और दो वार ही उत्पन्न होते हैं ॥ २८६ ॥ इसप्रकार उत्पद्यमान जीवोंका वर्णन समाप्त हुआ। १ब खु. २८ "किण्हो. ३ ब सासणिमिस्सा. ४ द भुयंगावियए. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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