SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -२. १६९] बिदुओ महाधियारो [७९ दुसहस्सजोयणाधियरज्जू तदियादिपुढविहंदूणं । छट्ठो त्ति परढाणे विञ्चालपमाणमुहिटुं॥ १६५ सयकदिरूऊणद्धं रज्जुजुदं चरिमभूमिहेंदूणं । मघविस्सै चरिमइंदयअवधिट्ठाणस्स विच्चालं ॥ १६६ णवणवदिजुदचदुस्सयछसहस्सा जोयणाई बे कोसा । एक्कारसकलबारसहिदा य धम्मिंदयाण विच्चाल॥ १६७ ६४९९ । को २।११। रयणप्पहचरमिंदयसक्करपुढविंदयाण विच्चालं । दोलक्खणवसहस्सा जोयणहीणेकरज्जू य ॥ १६८ ७। रिण जो २०९०००। एक्कविहीणा जोयणतिसहस्सा धणुसहस्सचत्तारि । सत्तसया वंसाए एक्कारसइंदयाण विञ्चालं ॥ १६९ २९९९ । दंड ४७०० विशेषार्थ-प्रथम पृथिवीकी मुटाई १८०००० योजन और द्वितीय पृथिवीकी मुटाई ३२००० योजनप्रमाण है । इस मुटाईसे रहित दोनों पृथिवियोंके मध्यमें एक राजुप्रमाण अन्तराल है। चूंकि एक हजार योजनप्रमाण चित्रा पृथिवीकी मुटाई प्रथम पृथिवीकी मुटाईमें सम्मिलित है परन्तु उसकी गणना ऊर्ध्व लोककी मुटाईमें की गई है, अतएव इसमेंसे इन एक हजार योजनोंको कम करदेना चाहिये । इसके अतिरिक्त प्रथम पृथिवीके नीचे और द्वितीय पृथिवीके ऊपर एक एक, हजार योजनप्रमाण क्षेत्रमें नारकियोंके बिलोंके न होनेसे इन दो हजार योजनोंको भी कम कर देनेपर शेष २०९००० ( १८०००० + ३२००० - ३०००) योजनोंसे रहित एक राजुप्रमाण प्रथम पृथिवीके अन्तिम और द्वितीय पृथिवीके प्रथम इन्द्रकके बीच परस्थान अन्तराल रहता है । दो हजार योजन अधिक एक राजुमेंसे तीसरी आदिक पृथिवीके बाहल्यप्रमाणको घटा देनेपर जो शेष रहे, उतना छठी पृथिवीपर्यन्त परस्थान अन्तरालका प्रमाण कहा गया है ॥ १६५|| सौके वर्गमेंसे एक कम करके शेषको आधा करे और उसे एक राजुमें जोड़कर लब्धमेंसे अन्तिम भूमिके बाहल्यको घटा देनेपर मघवी पृथिवीके अन्तिम इन्द्रक और अवधिस्थान इन्द्रकके बीच परस्थान अन्तरालका प्रमाण निकलता है ॥ १६६ ॥ धर्मा पृथिवीके इन्द्रक बिलोंका अन्तराल छह हजार चारसौ निन्यानबै योजन, दो कोस और एक कोसके बारह भागों से ग्यारह भागप्रमाण है ॥ १६७ ।। ६४९९ यो. २११ को.।। ___ रत्नप्रभा पृथिवीके अन्तिम इन्द्रक और शर्कराप्रभाके आदिके इन्द्रक बिलोंका अन्तराल दो लाख नौ हजार योजन कम एक राजुप्रमाण है ॥ १६८ ॥ २०९००० यो. कम १ रा.।। वंशा पृथिवीके ग्यारह इन्द्रकोंका अन्तराल एक कम तीन हजार योजन और चार हजार सातसौ धनुषप्रमाण है ॥ १६९ ॥ २९९९ यो. ४७०० धनु. । १ ब परिहाणे. २ ब मघवस्स. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy