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________________ ६६] या तिलोवपणती २.९४ तेसीदि लक्खाणि उदिसहस्साणि तिसयसगदालं । छप्पुढवीणं मिलिदा सब्बे वि पइण्णया होति ॥ ९४ । ८३९१३४० संखेजमिदयार्ण रुदं सेढीगदाण जोयणया । तं होदि असंखेज पाइण्णयाणुमयमिस्सं चे॥ ९५ . " ६ । २७ । ७७1(?) संखेजा वित्थारा णिरयाणं पंचमस्स परिमाणं । सैस चपंचभागा हॉति असंखेजरुंदाई॥९६ ८४०००००।१६०००००। ६७२००००। छप्पंचतिदुगलक्खा सद्विसहस्साणि तह य एक्कोणा । वीससहस्सा एवं रयणादिसु संखवित्थारा ॥९७ . ६०००००। ५०००००।३००००० । २०००००। ६००००। १९९९९ । । चड़वीसवीसबारलअट्टपमाणाणि होति लक्खाणि । सयकदिहदैचउवीस सीदिसहस्सा य चउहीणा ॥९८ २४०००००। २००००००। १२०००००1८०००००।२४००००। ७९९९६ । चत्तारि चिये एदे होति असंखेजजोयणा रुंदा । रयणप्पहपहृदीए कमेण सव्वाण पुढवीणं ॥ ९९ . छह पृथिवियोंके सबही प्रकीर्णक बिल मिलकर तेरासी लाख नब्बै हजार तीनसौ सैंतालीस होते हैं ॥ ९४ ।। ८३९०३४७ सब पृ. क प्रकी. बिल । .. इन्द्रक बिलोंका विस्तार संख्यात योजन, श्रेणीबद्ध बिलोंका असंख्यात योजन और प्रकीर्णक बिलोंका विस्तार उभयमिश्र अर्थात् कुछका संख्यात और कुछका असंख्यात योजन है ॥ ९५॥ संपूर्ण बिलसंख्याके पांच भागों से एक भागप्रमाण (३ ) बिलोंका विस्तार संख्यात योजन, और शेष चार भागप्रमाण ( ५ ) बिलोंका विस्तार असंख्यात योजनप्रमाण है ॥ ९६ ॥ - सर्व बिल ८४०००००, संख्यात योजन विस्तारवाले १६८००००, असं. यो. विस्तारवाले ६७२००००। . रत्नप्रभादिक पृथिवियोंमें क्रमशः छह लाख, पांच लाख, तीन लाख, दो लाख, साठ हजार, एक कम बीस हजार और एक, इतने बिलोंका विस्तार संख्यात योजनप्रमाण है ।। ९७ ॥ संख्यात योजनप्रमाण बिल- र. प्र. ६०००००; श. प्र. ५०००००; वा. प्र. ३०००००; पं. प्र. २०००००; धू. प्र. ६००००; त. प्र. १९९९९; म. त. प्र. १। रत्नप्रभादिक सब पृथिवियोंमें क्रमसे चौबीस लाख, बीस लाख, बारह लाख, आठ लाख, चौबीससे गुणित सौके वर्गप्रमाण अर्थात् दो लाख चालीस हजार, चार कम अस्सी हजार, और चार, इतने बिल असंख्यात योजनप्रमाण विस्तारवाले हैं ॥ ९८-९९ ॥ असंख्यात योजनप्रमाण विस्तारवाले बिल-र. प्र. २४०००००; श. प्र.२००००००; वा. प्र. १२०००००; पं. प्र. ८०००००; धू. प्र. २४००००; त. प्र. ७९९९६ म. त. प्र. ४ । १ द ब यसंखेज्जं. २ द ब 'णुभयमस्सरूवं. ३ द ब ठ्यणेदिसु. ४ द सयकदिहिद'. ५ द रचिय, बरविय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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