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________________ तिलोयपण्णत्ती [२. ६४चयहदमिच्छृणपदं रूणिच्छाए गुणिदचयजुत्तं । दुगुणिदवदणेणे जुदं पददलगुणिदं हवेदि संकलिदं ॥ ३४ चयहदमिच्छृणपदं १।८। रूणिच्छाए गुणिदचयं ।।८। जुर्द ९६ । दुगुणिदवदणादि सुगम । एक्कोणमवणिइंदयमखिये वग्गिज मूलसंजुतं । अटुगुणं पंचजुदं पुढविदयताडिदम्मि पुढविधणं ॥ ६५ पढमा इंदयसेढी चउदालसयाणि होति तेत्तीसं । छस्सयदुसहस्साणिं पणणउदी बिदियपुढवीए ॥६६ १४३३ । २६९५ । तियपुढवीए इंदयसेढी चउँदससयाणि पणसीदी । सत्तुत्तराणि सत्त य सयाणि ते होंति तुरिमाए ॥ ६७ १९८५। ७०७ ।। इच्छासे हीन गच्छको चयसे गुणा करके उसमें एक कम इच्छासे गुणित चयको जोड़कर प्राप्त हुए योगफलमें दुगुणे मुखको जोड़ देनेके पश्चात् उसको गच्छके अर्ध भागसे गुणा करनेपर संकलित धनका प्रमाण आता है ॥ ६४ ।। उदाहरण- [१] (१३ -१)x ८+ (१ - १४८ ) + ( २९३ x २). १३ = १२४८+ • + ५८६ ४ १.३ = ६८२४ १३ = ४४३३ प्रथम पृथिवीका संकलित धन. [२] (११-२)४८+ (२-१४८)+ (२०५४२)४३ =९४८+८+४१० x ११ = २६९५ द्वि. पृ. का सं. धन. _[३](९ - ३)४८+(३-१४८) +(१३३ ४२) x ३ = ६ x ८+ १६ + २२६४ ३ = १४८५ तृ. पृ. का सं. धन । इत्यादि। एक कम इष्ट पृथिवीके इन्द्रकप्रमाणको आधा करके उसका वर्ग करनेपर जो प्रमाण हो उसमें मूलको जोड़कर आठसे गुणा करे और पांच जोड़ दे । पश्चात् विवक्षित पृथिवीके इन्द्रकका जो प्रमाण हो उससे गुणा करनेपर विवक्षित पृथिवीका धन अर्थात् इन्द्रक व श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण निकलता है ॥ ६५ ॥ विशेषार्थ----जैसे प्रथम पृथिवीके इन्द्रकके प्रमाण १३ मेंसे १ कम करनेपर अवशिष्ट १२ के आधे ६ का वर्ग ३६ होता है। इसमें मूल ६ के मिलानेपर योगफल ४२ हुआ। उसको ८ से गुणा करनेपर जो ३३६ गुणनफल होता है, इसमें ५ जोड़कर योगफल ३४१ को प्रथम पृथिवीके इन्द्रकप्रमाण १३ से गुणा करनेपर प्राप्त गुणनफल ४४३३ प्रमाण प्रथम पृथिवीमें इन्द्रक व श्रेणीबद्ध बिलोंका प्रमाण समझना चाहिये । उदाहरण- ( १३-१) २ +( १३-१) x ८ +५४१३ = ३६ + ६४८+५४१३ = ४४३३ प्र. पृ. के इन्द्रक व श्रेणीबद्ध । प्रथम पृथिवीमें इन्द्रक और श्रेणीबद्ध बिल चवालीससौ तेतीस हैं । और द्वितीय पृथिवीमें दो हजार छहसौ पंचानबै इन्द्रक व श्रेणीबद्ध बिल हैं ॥ ६६ ॥ ४४३३ । २६९५। तृतीय पृथिवीमें इन्द्रक व श्रेणीबद्ध बिल चौदहसौ पचासी; और चौथी पृथिवीमें सातसौ सात हैं ॥ ६७ ॥ १४८५ । ७०७ ।। १द ब "मिक्कूणपदं. २ द ब गुणिदं वदणेण. ३ द ब चयपदमित्थूणपदं १३३ । ८ । रूउणिच्छाए गुणिदचयं ३ ८ । जुदं ९ । दुगुणिदेवादि सुगमं । इति पाठः ७६ तमगाथायाः पश्चादुपलभ्यते. ४ द ब मण्ण. ५ ब महिय, द मद्दिय. ६ ३ पुढमा. ७ द सेढीबद्धस्स सयाणि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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