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________________ -२.६३] बिदुओ महाधियारो अथवाइच्छे पदरविहीणा उणवण्णा अटुताडिया णियमा । सा पंचरूवजुत्ता इच्छिदसेदिया होंति ॥ ५९ उट्टि पंचूर्ण भजिदं भटेहि सोधए लद्धं । एगुणवण्णाहितो सेसा तत्थिदया होति ॥ आदीमो णिहिट्ठा णियणियचरिमिंदयस्स परिमाणं । सम्वत्थुत्तरमटुं णियणियपदराणि गच्छाणि ॥६१ तेणवदिजुत्तदुसया पणजुददुसया सयं च तेत्तीस । सत्तत्तरि सगतीसं तेरस रयणप्पहादिभादीओ ॥६२ ... २९३ । २०५।१३३ । ७७ ३७१३ ... तेरसएक्कारसणवसगपंचतियाणि होति गच्छाणि । सन्वटुत्तरमट्ट रयणप्पहपहुदिपुढवीसु ॥ ६३ २३।१ । ९ । ७ । ५ । ३ सम्वटुसर । अथवा- इष्ट प्रतरके प्रमाणको उनंचासमेंसे कम कर देनेपर जो अवशिष्ट रहे उसको नियमपूर्वक आठसे गुणा कर प्राप्त राशिमें पांच मिला दे। इसप्रकार अन्तमें जो संख्या प्राप्त हो वही विवक्षित पटलके इन्द्रकसहित श्रेणीबद्ध बिलोंको प्रमाण होता है ॥५९ ॥ उदाहरण- चतुर्थ पटलसम्बन्धी ई. व श्रे. ब. बिल, ४९-४४८+५= ३६५। ___किसी विवक्षित पटलके श्रेणीबद्धसहित इन्द्रकके प्रमाणरूप उद्दिष्ट संख्या से पांच कम करके शेषमें आठका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसको उनचासमेंसे कम करदेनेपर अवशिष्ट संख्याके बराबर वहांके इन्द्रकका प्रमाण होता है ॥६०॥ . उदाहरण-चतुर्थ पटलके इन्द्रक और श्रेणीबद्धोंका प्रमाण जो ३६५ है, वह यहां उद्दिष्ट है, ३६५-५ ८ = ४५, ४९ - ४५= ४ च. पटलके इन्द्रक. अपने अपने अन्तिम इन्द्रकका प्रमाण आदि कहा गया है, चय सब जगह आठ हैं, और अपने पटलोंका प्रमाण गच्छ या पद है ॥ ६१॥ विशेषार्थ- श्रेणीव्यवहार गणितमें, प्रथम स्थानमें जो प्रमाण होता है उसे आदि, मुख ( वदन) अथवा प्रभव कहते हैं । इसीप्रकार अनेक स्थानोंमें समानरूपसे होनेवाली वृद्धि अथवा हानिके प्रमाणको चय या उत्तर तथा जिन स्थानोंमें समानरूपसे वृद्धि या हानि हुआ करती है, उन्हें गच्छ अथवा पद भी कहते हैं । दोसौ तेरानबै, दोसौ पांच, एकसौ तेतीस, सतहत्तर, सैंतीस और तेरह, यह क्रमसे, रत्नप्रभादिक छह पृथिवियोंमें आदिका प्रमाण है ॥ ६२॥ . आदिका प्रमाण- र. प्र. २९३, श. प्र. २०५, वा. प्र. १३३, पं. प्र. ७७ धू. प्र. ३७, त. प्र.१३ । , रत्नप्रभादिक पृथिवियोंमें क्रमसे तेरह, ग्यारह, नौ, सात, पांच, और तीन गच्छ है उत्तर या चय सब जगह आठ है ॥ ६३॥ - गच्छका प्रमाण- र. प्र. १३, श. प्र. ११, वा. प्र. ९, पं. प्र. ७, धू. प्र. ५, त. प्र. ३ । सर्वत्र उत्तर ८। १ [इहे]. २ द ब ऊणावण्णाहितो. ३ द चरिमंदयस्सः ४ द ब सव्वट्टत्तरमंतं. ५ द ब रयणपहाए. ६ द ब सव्वदुद्वर ॥5॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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