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________________ ४४ ] तिलोयपण्णत्ती [१.२८२ ३४3 ३४३ वरि दोसु वि अंतेसु सटिजोयणसहस्सउस्सेहपरिहाणखेत्तेण ऊणं एदमजीएणं सद्विसहस्सबाहलं जग. पदरमिदि संकप्पिय तच्छेदूण पुढं ठवेदव्वं । = ६००००। पुणो एगरज्जूस्सेधेण सत्तरज्जूआयामेण सहिजोयणसहस्सबाहल्लेण दोसु पासेसु ठिदवादखत्तं बुद्धीएँ पुधं करिय जगपदरपमाणेण णिबद्धे वीससहस्साहिअजोयणलक्खस्स सत्तभागबाहलं जगपदरं होदि । = १२०००० । तं पुग्विल्लक्खेत्तस्सुवरि ठिदे चालीसजोयणसहस्साहियपंचण्हं लक्खाणं सत्तभागबाहल्लं जगपदरं होदि । = ५४००००। पुणो अवरासु दोसु दिसासु ५ एगरज्ज़स्सेधेण तले सत्तरज्जुआयामेण मुहे सत्तभागाहियछरज्जुरुंदत्तेण सटिजोयणसहस्सबाहल्लेण ठिदवादखेत्ते जगपदरपमाणेण कदे वीसजोयणसहस्साहियपंचपंचासजोयणलक्खाणं तेदालीसतिसदभागबाहल्लं जगपदर होदि। - ५५२००००। एदे पुब्विलखेत्तस्सुवरि पक्खित्ते एगूणवीसलक्खअसीदिसहस्सजोयणाहियतिण्हं कोडीणं तेदालीसतिसदभागबाहलं जगपदरं होदि । = ३ १९८००००। पुणो सत्तरज्जुविक्खभतेरहरज्जु आयामसोलहबारह [-सोलहबारह-] जोयणबाहलेण दोसु वि पाससु ठिदवादखेत्ते जगपदरपमाणेण कदे १० यहां विशेषता सिर्फ इतनी है कि लोकके दोनों ही अन्तों अर्थात् पूर्व-पश्चिमके अन्तिम भागोंमें साठ हजार योजनकी उंचाईतक क्षेत्र यद्यपि हानिरूप है, फिर भी उसे न जोडकर ' साठ हजार योजन बाहल्यवाला जगप्रतर है' इसप्रकार संकल्पपूर्वक उसको छेदकर पृथक् स्थापित करना चाहिये । यो. ६०००० x ४९. अनन्तर एक राजु उत्सेध, सात राजु आयाम और साठ हजार योजन बाहल्यवाले वातवलयकी अपेक्षा दोनों पार्श्वभागोंमें स्थित वातक्षेत्रको बुद्धिसे अलग करके जगप्रतरप्रमाणसे सम्बद्ध करने पर सातसे भाजित एक लाख बीस हजार योजन बाहल्यप्रमाण जगप्रतर होता है। १ २ ० ० ० ० ४ ४ ५ । इसको पूर्वोक्त क्षेत्रके ऊपर स्थापित करनेपर पांच लाख चालीस हजार योजनके सातवें भाग बाहल्यप्रमाण जगप्रतर होता है । ( ६०००°४७) + १ २ ० ० ० ० = ५ ४ ० ० ० ० ४ ४ ९ __इसके आगे इतर दो दिशाओं अर्थात् दक्षिण और उत्तरकी अपेक्षा एक राजु उत्सेधरूप, तलभागमें सात राजु आयामरूप, मुखमें सातवें भागसे अधिक छह राजु विस्ताररूप और साठ हजार योजन बाहल्यरूप वायुमण्डलकी अपेक्षा स्थित वातक्षेत्रके जगप्रतरप्रमाणसे करनेपर पचवन लाख बीस हजार योजनके तीनसौ तेतालीसवें भाग बाहल्यप्रमाण जगप्रतर होता है। ९ + ४३ २४१ x ६०००० = ५५ २ ००० ० ४ ९ = ५५२०००० ४ ९. इस उपर्युक्त घनफलके प्रमाणको पूर्वोक्त क्षेत्रके ऊपर रखने पर तीन करोड उन्नीस लाख अस्सी हजार योजनके तीनसौ तेतालीसवें भाग बाहल्यप्रमाण जगप्रतर होता है। ५४०००० + ५५२०९०० - ३ १९८०००° x ४९ इसके अनन्तर सात राजु विष्कंभ, तेरह राजु आयाम तथा सोलह, बारह, ( सोलह एवं बारह ) योजन बाहल्यरूप अर्थात् सातवीं पृथिवीके पार्श्वभागमें सोलह, मध्यलोकके पार्श्वभागमें बारह, १ द परिहाणिखेत्तेण, [परिहीणखेत्तेण ]. २ द ब पुढं ति दव्वं. ३ द बुधि पुदक्करिय, ब बुट्टि पदक्करिय. ४ द ब ठिदवादखेत्तेण. ५ एदं पुविलं. ६ द सोलस. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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