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________________ -१.२८२] पढमो महाधियारो [४३ - एत्तो चउचउहीणं सत्तसु ठाणेसु ठविय पत्तेक्कं । सत्तविहत्ते होदि हु मारुदवलयाण बहलत्तं ॥ २७९ ८४|९६|१०८११२|१०८१०४ १०.९६ | ९२/८८८४ तीसं इगिदालदलं कोसा तियभाजिदा य उणवण्णा । सत्तमखिदिपणिधीए बम्हजुगे वाउबहलत्तं ॥ २८० घ घ तनु दोछब्बारसभागब्भहिओ कोसो कमण वाउघणं । लोयउवरिम्मि एवं लोयविभायम्मि पण्णत्तं ॥ २८१ पाठांतरं ६ १२ वादवरुद्वक्खेत्ते विदफलं तह य अटपुढवीए । सुद्धायासखिदीण लवमेतं वत्तहस्सामो ॥ २८२ संपहि लोगपेरंतट्ठिदवादवलयरुद्धखेत्ताणं' आर्णयणविधाणं उच्चदे - लोगस्स तले तिण्णिवादाणं बहलं वादेक्कस्स य वीससहस्सा य जोयणमेतं । तं सव्वमेगटुं कदे सँट्रिजोयणसहस्सबाहलं जगपदरं होदि। चार कम संख्याको रखकर प्रत्येकमें सातका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना वातवलयोंकी मुटाईका प्रमाण है ॥ २७८-२७९ ॥ ___ ऊर्ध्वलोकमें वातवलयोंका बाहल्य--[१] मेरुतलसे ऊपर सौ. ई. के अधोभागमें ४५; [२] सौ. ई. के उपरिभागमें ९६; {३] सा. मा. १०८; [४] ब. ब्रह्मो. १९२; [५] लां. का. १०८; [६] शु. महा. १०५; [७] श. स. १००; [८] आ. प्रा. ९६; [९] आ. अ. ९.२; [१०] अवेयकादि ८ [११] सिद्धक्षेत्र ८४ । सातवीं पृथिवी और ब्रह्मयुगलके पार्श्वभागमें तीनों वायुओंकी मुटाई क्रमसे तीस, इकतालीसके आधे और तीनसे भाजित उनचास कोस है ॥२८० ॥ घ. उ. ३०; घ. ३१, तनु ४० कोस । लोकके ऊपर अर्थात् लोकशिखरपर तीनों वातवलयोंकी मुटाई क्रमसे दूसरे भागसे अधिक एक कोस, छठवें भागसे अधिक एक कोस और बारहवें भागसे अधिक एक कोस है, ऐसा 'लोकविभागमें ' कहा गया है ॥ २८१ ।। पाठान्तर ॥ घ. उ. १३; घ. १६; तनु. १२३ कोस । __ यहां वायुसे रोके गये क्षेत्र, आठों पृथिवियों और शुद्ध आकाशप्रदेशके घनफलको लवमात्र अर्थात् संक्षेपमें कहते हैं ॥ २८२ ॥ अब लोकपर्यन्तमें स्थित वातवलयोंसे रोके गये क्षेत्रोंके निकालनेके विधानको कहते हैं--लोकके नीचे तीनों वायुओंमेंसे प्रत्येक वायुका बाहल्य बीस हजार योजनप्रमाण है। इन तीनों वायुओंके बाहल्यको इकट्ठा करनेपर साठ हजार योजन बाहल्यप्रमाण जगप्रतर होता है। १ द ब प्रत्योः 'पाठांतरं' इति पदं २८०-२८१ गाथयोर्मध्य उपलभ्यते । २ ब१, द प्रतौ संदृष्टिनास्ति. ३ द वादरुद्धं खेत्ते, ब वादवरुद्धं खेत्ते. ४ द ब खिदिणं. ५ द व वादंवलयरुंधचित्ताणं. ६ द ब याणयण. ७ द तिण्ण. ८ द तं सम्मेगटुं,कदेगसटि ब तेसमेगष्टुं कदे वासष्ट्रि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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