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________________ ४२] तिलोयपण्णत्ती [ १. २७४ तिरियक्खेत्तप्पणिधिं गदस्स पवणत्तयस्त बहलतं । मेलिय सत्तमपुढवीपणिधीगयमरुदबहलाम्म ॥२७४ तं सोधिदूण तत्तो भजिदव्वं छप्पमाणरज्जूहिं । लद्धं पडिप्पदेसं जायते हाणिवडीओ ॥ २७५ १२।४।६। अट्ठछचउदुगदेयं तालं तालटुतीसछत्तीसं । तियभजिदा हेट्ठादो मरुबहलं सयलपासेसु ॥ २७६ ४८ | ४६ | ४४ | १२ | ४० | ३८ | ३६ । उँजुगे खलु वड्डी इगिसेढीभजिदअट्ठजोयणया । एवं इच्छप्पहदं सोहिय मेलिज भूमिमुहे ॥ २७७ मेरुतलादो उवरि कप्पाणं सिद्धखेत्तपणिधीए । चउसीदी छण्णउदी अडजुदसय बारसुत्तरं च सयं ॥ २७८ तिर्यक्षेत्रके पार्श्वभागमें स्थित तीनों वायुओंके बाहल्यको मिलाकर जो योगफल प्राप्त हो, उसको सातवीं पृथिवीके पार्श्वभागमें स्थित वायुओंके बाहल्यमेंसे घटा कर शेषमें छह प्रमाण राजुओंका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतनी सातवीं पृथिवीसे लेकर मध्यलोकतक प्रत्येक प्रदेशक्रमसे एक राजुपर वायुकी हानि और वृद्धि होती है ॥ २७४-२७५ ॥ ७वीं पु. के पास वातवलयोंका बाहल्य ७+५+ ४ = १६, ५ + ४ + ३ = १२; . १६-१२६ = ६ प्रतिप्रदेशकमसे एक राजुपर होनेवाली हानिवृद्धिका प्रमाण । ___ अड़तालीस, छयालीस, चवालीस, ब्यालीस, चालीस, अड़तीस और छत्तीसमें तीनका भाग देनेपर जो लब्ध आवे, उतना क्रमसे नीचेसे लेकर सब पार्श्वभागोंमें ( सात पृथिवियोंके पा. भा. में ) वातवलयोंका बाहल्य है ॥ २७६ ॥ सात पृथिवियोंके पार्श्वभागमें स्थित वातवलयोंका बाहल्य-- सप्तम पृ. ४६; षष्ठ पृ. ४.६ ; पंचम पृ. १३ ; च. पृ. १२ ; तृ. पृ. ३ ; द्वि. पृ. ३६ ; प्र. पृ. ३.६ यो.। ऊर्ध्वलोकमें निश्चयसे एक जगश्रेणीसे भाजित आठ योजनप्रमाण वृद्धि है । इस वृद्धिप्रमाणको इच्छासे गुणा करनेपर जो राशि उत्पन्न हो, उसको भूमिमेंसे कम कर देना चाहिये और मुखमें मिला देना चाहिये । ( ऐसा करनेसे ऊर्ध्वलोकमें अभीष्ट स्थानके वायुमण्डलोंकी मुटाईका प्रमाण निकल आता है ) ॥ २७७ ॥ उदाहरण-भूमिकी अपेक्षा सान. माहेन्द्र कल्पके पास वातवलयोंकी मुटाई-१६(x) = १५३ यो.; अथवा १२ + ( -३) = १५७ यो. मुखकी अपेक्षा । मेरुतलसे ऊपर कल्पों तथा सिद्धक्षेत्रके पार्श्वभागमें चौरासी, छयानबै, एकसौ आठ, एकसौ बारह और फिर इसके आगे सात स्थानोंमें उक्त एकसौ बारहमेंसे ( ११२) उत्तरोत्तर चार ३ द ब 'देयं तालं तालं तालट्रतीस. १ द ब सहमपोढवी . २ द १२४१० 1. ४ [ उड्डजगे ]. ५ द जोयणसया. ६ द ब 'सयवारबारसुत्तरं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001274
Book TitleTiloy Pannati Part 1
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages598
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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