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________________ ८०. भुवणालंकारहत्थिसंखोभणपव्वं पुणरवि नमिऊण मुणिं, पुच्छइ सिरिवित्थरं मगहराया । हलहर-सोमित्तीणं, कहेइ साहू समासेणं ॥ १ ॥ निसुणेहि सेणिय ! तुम, हलहर-नारायणाणुभावेणं । नन्दावत्तनिवेसं, बहुदारं गोउरं चेव ॥ २ ॥ सुरभवणसमं गेहं, खिइसारो नाम हवइ पायारो । मेरुस्स चूलिया इव, तह य सभा वेजयन्ती य ॥ ३ ॥ साला य विउलसोहा, चक्कमिणं हवइ सुविहिनामेणं । गिरिकूडं पासायं, तुझं अवलोयणं चेव ॥ ४ ॥ नामेण वद्धमाणं, चित्तं पेच्छाहरं गिरिसरिच्छं । कुक्कडअण्डावयवं, कूडं गब्भग्गिहं रम्म ॥ ५ ॥ कप्पतरुसमं दिवं, एगत्थम्भं च हवइ पासायं । तस्स पुण सबओ च्चिय, ठियाणि देवीण भवणाई ॥ ६ ॥ अह सीहवाहीणी वि य, सेज्जा हरविट्ठरं दिणयराभं । ससिकिरणसन्निभाई, चमराई मउयफरिसाइं ॥ ७ ॥ वेरुलियविमलदण्ड, छत्तं ससिसन्निह सुहच्छायं । विसमोइयाउ गयणं लङ्घन्ती पाउयाओ य ॥ ८ ॥ वत्थाइ अणग्धाई, दिवाई चेव भूसणवराई । दुब्मिजं चिय कवयं, मणिकुण्डलजुवलयं कन्तं ॥ ० ॥ खम्गं गया य चर्क, कणयारिसिलीमुहा वि य अमोहा । विविहाइ महत्थाई, अन्नाणि वि एवं'मादीणि ॥ १०॥ पन्नाससहस्साई, कोडीणं साहणस्स परिमाणं । एक्का य हवइ कोडी, अब्भहिया पवरघेणूणं ॥ ११ ॥ सत्तरि कुलकोडीओ, अहियाउ कुडुम्बियाण जेट्ठाणं । साएयपुरवरीए, वसन्ति धणरयणपुण्णाओ ॥ १२ ॥ कइलाससिहरसरिसोवमाइ भवणाइ ताण सेवाणं । बलय-गवा-महिसीहिं, समाउलाई सुरम्माइं॥ १३ ॥ पोक्खरिणिदीहियासु य, आरामुज्जाणकाणणसमिद्धा । जिणवरघरेसु रम्मा, देवपुरी चेव साएया ॥ १४॥ ८० त्रिभुवनालङ्कार हाथीका संक्षोभ । विशाल शोभावाले मुनिको नमस्कार करके मगधराध राज श्रेणिकने पुनः राम और लक्ष्मणके बारे में पूछा। तब गौतम मुनिने संक्षेपमें कहा (१) उन्होंने कहा कि हे श्रेणिक ! तुम सुनो। हलधर राम और नारायण लक्ष्मणने प्रभावसे नन्द्यावर्त संस्थानवाला तथा अनेक द्वारों व गोपुरोंसे युक्त एक प्रासाद बनवाया। (२) वह देवभवनके जैसा था। क्षितिसार नामका उसका प्राकार था। उसमें मेरु पर्वतकी चूलिका जैसी ऊँची एक वैजयन्ती सभा थी। (३) उसमें अत्यन्त शोभायुक्त शाला तथा सुवीथी नामका एक चक्र .था। यह प्रासाद पर्वतके शिखर जैसा था और उसमें ऊँची अट्टालिका थी। (४) उसमें सुन्दर और पर्वतके समान ऊँचा एक प्रेक्षागृह था तथा मुर्गे के अण्डेके आकारका एक रमणीय गुप्त गर्भगृह था। (५) एक स्तम्भ पर स्थित वह प्रासाद कल्पवृक्षके समान दिव्य था। उसके चारों ओर देवियों (रानियों) के भवन आये हुए थे। (६) शय्यागृहमें आया हुआ सिंहको धारण करनेवाला आसन ( सिंहासन ) सूर्य के समान तेजस्वी था और चन्द्रमाकी किरणोंके श्वेत चँवर मृदु स्पर्शवाले थे। (७) वैडूर्यका बना निर्मल दण्ड, चन्द्रमाके जैसा सुखद छायावाला छत्र, आकाशको लाँघनेवाली विषमोचिका पादुका, अमूल्य वस्त्र, दिव्य और उत्तम भूषण, दुर्भेद्य कवच, मणिमय कुंडलोंका सुन्दर जोड़ा, तलवार, गदा और चक्र, कनक, शत्रुका विनाश करनेवाले अमोघ बाण तथा ऐसे ही दूसरे विविध महास्त्र उनके पास थे। (८-१०) उनके सैन्यका परिमाण पचास हजार करोड़ था। एक करोड़से अधिक उत्तम गायें थीं। (११) बड़े गृहस्थोंके सत्तर करोड़से अधिक धन एवं रत्नोंसे परिपूर्ण कुल साकेतपुरीमें बसते थे। (१२) उन सबके भवन कैलास पर्वतके शिखरके जैसी उपमावाले, बैल गाय और भैंसोंसे युक्त तथा सुन्दर थे। (१३) सरोवरों और बावड़ियों तथा बाग-बगीचोंसे समृद्ध और जिनमन्दिरोंसे रम्य देवपुरी जैसी वह साकेत नगरी थी। (१४) रामने हर्षित होकर वहाँ भव्य जनोंको आनन्द देनेवाले १. •माई पि प्रत्य.। २. सव्वाई मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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