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पउमचरियं
[७५.८४
अट्टावन्नसहस्सा, तत्थ य जुवईण लद्धबोहोणं । पवइया नियमगुणं, कुणन्ति दुक्खक्खयट्टाए ॥ ८४ ॥
इवं इन्दइ-मेहवाहणमुणी धम्मक्कचित्ता सया, नाणालद्धिसमिद्धसाहुसहिया अब्भुज्जया संजमे । भवाणन्दयरा भमन्ति वसुहं ते नागलीलागई, अबाबाहसुहं सिर्व सुविमलं मग्गन्ति रतिंदिवं ॥ ८५ ॥
॥ इय पउमचरिए इन्दइआदिनिक्खमणं नाम पञ्चहत्तरं पव्वं समत्तं ।।
७६. सीयासमागमपव्वं एत्तो दसरहतणया, हलहर-नारायणा महिड्डीया । लङ्कापुरि पविट्ठा, हय-गय-रह-जोहपरिकिण्णा ॥ १ ॥ पडपडह-भेरि-झल्लरि-काहल-तिलिमा मुइङ्गसद्देणं । जयजयसदेण तहिं, न सुणिज्जइ कण्णवडियं पि ॥ २॥ तत्थेव रायमग्गे, पउमं सहलक्खणं पलोयन्तो । न य तिप्पइ नयरजणो, संपेल्लोप्पेल्लकुणमाणो ॥ ३ ॥ विजाहरीहिं सहसा, भवणगवक्खा निरन्तरं छन्ना । वयणकमलेसु अहियं, रेहन्ति पलोयमाणीणं ॥ ४ ॥ अन्नोन्ना भणइ सही, एसो वरपुण्डरीयदलनयणो । सीयाए हियइट्ठो, रामो इन्दो छ रूवेणं ॥ ५ ॥ इन्दीवरसरिसाभो, इन्दीवरलोयणो महाबाहू । चक्करयणस्स सामी, पेच्छ सही लक्खणो एसो ॥ ६ ॥ एसो किक्किन्धिबई, विराहिओ जणयनन्दणो नीलो । अङ्गो अङ्गकुमारो, हणुवन्तो जम्बुवन्तो य ॥ ७॥ एवं ते पउमाई, सुहडा निसुणन्तया जणुलावे । सीयाभिमुहा चलिया, आवरेन्ता नरिन्दपहं ॥ ८ ॥ अह सो आसन्नत्थं, पुच्छइ वरचमरधारिणिं पउमो । भद्दे ! कहेहि सिग्छ, कत्थऽच्छइ सा महं भज्जा ? ॥ ९ ॥
भाववाली वह जिनवरके धर्ममें प्रयत्नशील हुई। (८३) ज्ञानप्राप्त अठावन हजार युवतियोंने वहाँ दीक्षा ली। दुःखके क्षयके लिए वे नियमोंका आचरण करने लगीं। (८४) इस तरह धर्ममें सदा दत्तचित्त और नाना प्रकारकी लब्धियोंसे समृद्ध साधुओंसे युक्त इन्द्रजित और मेघवाहन मुनि संयममें उद्यमशील हुए। भव्यजनोंको आनन्द देनेवाले तथा हाथीकी लीलाके समान गतिवाले वे पृथ्वी पर घूमते थे और अव्याबाध एवं विमल शिव-सुखको रात-दिन खोजते थे। (८५)
। पद्मचरितमें इन्द्रजित आदिका निष्क्रमण नामक पचहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ।
७६. सीताका समागम तब बड़ी भारी ऋद्धिवाले और घोड़े, हाथी, रथ एवं योद्धाओंसे घिरे हुए दशरथपुत्र राम और लक्ष्मणने लंकापुरीमें प्रवेश किया। (१) उस समय बड़े बड़े डंके, भेरी, झांझ काहल, तिलिमा व मृदंगकी आवाज़ तथा जय-जय ध्वनिके कारण कानमें पड़ा शब्द भी सुनाई नहीं पड़ता था। (२) वहीं राजमार्गमें लक्ष्मणके साथ रामको देखकर धकमधक्का करनेवाले नगरजन तृप्त नहीं होते थे। (२) दर्शन करनेवाली कमल-वदना विद्यारियोंके द्वारा सहसा भवनोंके सघन रूपसे छाये हुए भवनोंके गवाक्ष अधिक शोभित हो रहे थे। (४) वे एक-दूसरेसे कहती थीं कि, सखी! पुण्डरीकके दलके समान सुन्दर नेत्रोंवाले और सीताके प्रिय ये राम रूपमें इन्द्रकी भाँति हैं। (५) हे सखी! नीलकमलके समान कान्तिवाले, नीलकमलके समान नेत्रोंवाले, बलवान और चक्ररत्नके स्वामी इस लक्ष्मणको तो देख । (६) ये किष्किन्धिपति सुग्रीव, विराधित, जनकनन्दन भामण्डल, नील, अंग, गद कुमार, हनुमान, जाम्बवन्त हैं। (७) इस प्रकार लेगोंकी बात-चीतको सुनते और राजमार्गको भरते हुए राम आदि सुझट सीताकी ओर चले । (८) आसनपर स्थित सुन्दर चामरधारिणी से उन रामने पूछा
१. करेन्ति--प्रत्यः ।
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