________________
४३१
७५.८३]
७५. इन्दइपमुहणिक्खमणपव्वं पढ़मो वि तवं कार्ड, कालगओ सुरबरो समुप्पन्नो । संभरइ कणिर्ट सो, जायं नन्दस्स अङ्गरुहं ॥ ६८ ॥ तस्स पडिबोहणट्टे, चेल्लयरूवेण आगओ सिग्छ । पविसरइ रायभवणं, दिट्ठो रइवद्धणेण तओ ॥ ६९ ॥ अन्भुट्ठिओ निविट्ठो, कहेइ रइवद्धणस्स पुवभवं । सबं सपच्चयगुणं, जं दि8 जं च अणुहूयं ॥ ७० ॥ तं सोऊण विबुद्धो, अह सो रइवद्धणो विगयसङ्गो । गिण्हइ जिणवरदिक्खं, देवो वि गओ निययठाणं ॥ ७१ ।। रइवद्धणो वि य तवं, काऊणं कालधम्मसंजुत्तो । पढमामरस्स पासं, गओ य वेमाणिओ जाओ ।। ७२ ।। तत्तो चुया समाणा, विजए जाया विउद्धवरनयरे । एकोयरा नरिन्दा, चरिय तवं पत्थिया सम्गं ।। ७३ ॥ तत्तो वि चुया तुब्भे, इन्दइ-घणवाहणा समुप्पन्ना । लङ्काहिवस्स पुत्ता, विज्जा-बल रूवसंपन्ना ।। ७४ ॥ ना आसि इन्दुवयणा, सा इह मन्दोयरी समुप्पन्ना । नणणी बीयम्मि भवे, जिणसासणभावियमईया ॥ ७५ ॥ सुणिऊण परभवं ते, दो वि जणा तिबजायसंवेगा। निस्सङ्गा पवइया, समय विजाहरभडेहिं ॥ ७६ ॥ धीरो वि भाणुकण्णो, मारीजी चेव खेयरसमिद्धी । अवहत्थिऊण दोणि वि, पबइया जायसंवेगा ॥ ७७ ॥ मन्दोयरी वि पुत्ते, पबज्जमुवागए सुणेऊणं । सोयसरायहियया, मुच्छावसविम्भला पडिया ॥ ७८ ॥ चन्दणजलोल्लियङ्गी, आसत्था विलविउं समाढत्ता । हा इन्दइ ! घणवाहण !, जणणी नो लक्खिया तुम्भे ॥ ७९ ॥ भत्तारविरहियाए, पुत्ता आलम्बणं महिलियाए । होन्ति इह जीवलोए, चत्ता तेहिं पि पावा है ॥ ८० ॥ तिसमुद्दमेइणिवई, मह दइओ विणिहओ रणमुहम्मि । पुत्तेहि वि मुक्का है, के सरणं वो पवज्जामि ? ॥ ८१ ॥ एवं सा विलवन्ती, अज्जाए तत्थ संजमसिरीए । पडिबोहिया य गेण्हइ, पव्वज सा महादेवी ॥ ८२ ॥ चन्दणहा वि अणिचं, जीयं नाऊण तिबदुक्खत्ता । पवइया दढभावा, जिणवरधम्मुज्जया नाया ॥ ८३ ।।
प्रथम मुनि भी तप करके मरने पर देव रूपसे उत्पन्न हुआ। नन्दके पुत्र रूपसे उत्पन्न छोटे भाईको उसने याद किया। (६८) उसके प्रतिबोधके लिये वह शीघ्र ही शिष्यके रूपमें आया। राजभवनमें उसने प्रवेश किया। तब रतिवर्धनने उसे देखा । (६६) अभ्युत्थानके बाद बैठे हुए उसने रतिवर्धनसे पूर्वभव तथा जो देखा और अनुभव किया था वह सब सप्रमाण कहा । (७०) यह सुनकर वह रतिवर्धन बिरक्त हो गया। उसने जिनवरकी दीक्षा ग्रहण की। देव भी अपने स्थान पर चला गया। (७१) रतिवर्धन भी तप करके और कालधर्मसे युक्त होने पर ( अर्थात् मरने पर) प्रथम देवलोकमें गया और वैमानिक देव हुआ। (७२) वहाँसे च्युत होने पर विजय क्षेत्रमें आये हुए विवुद्धवर नगरमें वे सहोदर राजा हुए। तप करके वे स्वर्गमें गये। (७३) वहाँसे भी च्युत होने पर लंकेश रावणके विद्या, बल और रूपसे सम्पन्न पुत्र इन्द्रजित और घनवाहनके रूपमें तुम उत्पन्न हुए हो। (७४) जो इन्दुमुखी थी वह यहाँ दूसरे भवमें जिनशासनसे वासित बुद्धिवाली माता मन्दोदरीके रूपमें उत्पन्न हुई है। (७५)
पर-भवके बारेमें सुनकर उन दोनों ही व्यक्तियोंको तीव्र वैराग्य उत्पन्न हुआ। निस्संग उन्होंने विद्याधर सुभटोंके साथ दीक्षा ली। (७६) धीर भानुकर्ण तथा मरीचि दोनोंने वैराग्ययुक्त हो खेचर-समृद्धिका परित्यागकर प्रव्रज्या ली। (७७) पुत्रोंने प्रवज्या अंगीकार की है यह सुनकर हृदयमें शोकरूपी बाणसे आहत मन्दोदरी मू से विह्वल हो नीचे गिर पढ़ी। (८) शरीर पर चन्दनजलसे सिक्त वह होशमें आने पर विलाप करने लगी कि, हा इन्द्रजित ! हा घनवाहन! तुमने माताका ध्यान नहीं रखा (७६) इस जीवलोंकमें पतिसे विरहित स्त्रीके लिए पुत्र आलम्बनरूप होते हैं। मैं पापी उनसे भी परित्यक्त हुई हूँ। (८०) जिसके तीन ओर समुद्र था ऐसी पृथ्वीके स्वामी मेरे पति युद्ध में मारे गये। पुत्रोंके द्वारा भी मैं परित्यक्त हुई हूँ। अब में किसकी शरणमें जाऊँ ? (८१) इस प्रकार वहाँ विलाप करती हुई उसे आर्या संयमश्रीने प्रतिबोधित किया। उस महादेवीने दीक्षा ग्रहण की । (८२) तीव्र दुखसे पीड़ित चन्द्रनखा भी जीवनको अनित्य जानकर प्रव्रजित हुई और दृढ़
१. नन्दिस्स मु.। २. खुड्य मु०।
३. पव्वइया खायजसा--प्रत्य० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org