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________________ ४२२ पउमचरियं [७३. १०० किंपागफलसरिच्छा, भोगा पच्छा हवन्ति विसकडुया । बहुदुक्खदोग्गइकरा, साहूणं गरहिया निच्चं ॥ १० ॥ भरहाइमहापुरिसा, धन्ना जे उज्झिऊण रायसिरिं । निक्खन्ता चरिय तवं, सिवमयलमणुत्तरं पत्ता ॥ ११ ॥ सो कह मोहेण निओ, अहयं संसारदीहनगएणं? । किं वा मरेमि इण्हि, उवट्टिए पडिभए घोरे? ॥ १२ ॥ दठूण चक्कहत्थं, सोमित्तिं रावणो सवडहुत्तं । महुरवयणेहि एत्तो, बिहीसणो भणइ दबयणं ॥ १३ ॥ अज्ज वि य मज्झ वयणं, कुणसु पहू ! जाणिऊण अप्पहियं । तुहु पउमपसाएणं, जीवसु सीयं समप्पेन्तो ॥ १४ ॥ -सा चेव तुज्झ लच्छी , एव कुणन्तस्स आउयं दीहं । हवइ नियमेण रावण!, नरस्स इह माणभङ्गेणं ॥ १५ ॥ एक्कोयरस्स वयणं, अवगणेऊण रावणो भणइ । रे तुज्झ भूमिगोयर !, गवं चिय दारुणं जायं ॥ १६ ॥ ताव य गज्जन्ति गया, जाव न पेच्छन्ति अहिमुहावडियं । दाढाविडम्बियमुह, वियडजडाभासुरं सीहं ।। १७ ।। रयणासवस्स पुत्तो, अहयं सो रावणो विजियसत्त । दावेमि तुह अवत्थं, जीयन्तयरी निरुत्तेणं ॥ १८ ॥ भणिओ य लक्खणेणं, किं वा बहुएहि भासियहिं । उप्पन्नो तुज्झ ऑरिवू, हन्ता नारायणो अहयं ॥ १९ ॥ निवासियस्स तइया, पियरेणं वणफलासिणस्स मया । नारायणत्तणं ते, विनायं दीहकालेणं ॥ २० ॥ नारायणो निरुत्तं, होहि तुमं अहा को वि अन्नो वा । इह तुज्झ माणभङ्ग, करेमि निस्संसयं अजं ॥ २१ ॥ अइगविओ सि लक्खण, हत्थविलग्गेणिमेण चक्कणं । अहवा होइ खलेण वि, महसवो पाययजणस्स ॥ २२ ॥ चक्केण खेयरेहि य, समयं सतुरङ्गमं सह रहेणं । पेसेमिह पायाले, किं च बहुत्तेण भणिएणं? ॥ २३ ॥ सो एवभणियमेत्तो, चकं नारायणो भमाडेउं । पेसेइ पडिवहेणं, लङ्काहिवइस्स आरुट्ठो ॥ २४ ॥ आलोइऊण एन्तं, चक्कं घणघोसभीसणं दित्तं । सर-झसर-मोग्गरेहि, उज्जुत्तो तं निवारेउं ॥ २५ ॥ विषके समान कडुए, वहुत दुःख और दुर्गति देनेवाले तथा साधुओंके द्वारा सदैव गर्हित होते हैं। (१०) भरत आदि महापुरुष धन्य है जिन्होंने राज्यलक्ष्मीका परित्याग करके दीक्षा अंगीकार की थी और तपका आचरण करके विमल और अनुत्तर शिवपद प्राप्त किया । (११) दीर्घ संसारके उत्पादक मोहके द्वारा मैं कैसा जीता गया हूँ ? अथवा घोर भय उपस्थित होने पर अब मैं क्या करूँ ? (१२) रावणके सम्मुख हाथमें चक्र धारण किये हुए लक्ष्मणको देखकर विभीषणने रावणसे मधुर शब्दों में कहा कि, हे प्रभो! अपना हित जानकर अब भी मेरा कहना करो। सीताका समर्पण करनेवाले तुम रामके प्रसादसे जीते रहो। (१४) हे रावण ! इस प्रकार करनेसे तुम्हारा वही ऐश्वर्य रहेगा। अभिमानके नष्ट होनेसे यहाँ मनुष्यका आयुष्य अवश्य ही दीर्घ होता है। (१५) सहोदर भाईके ऐसे कथनकी अवहेलना करके रावणने कहा कि, हे भूमिगोचर ! तेरा गर्व भयंकर हो गया है। (१६) तभी तक हाथी चिंघाड़ते हैं जबतक वे दाँतोंसे मुखकी विडम्बना करनेवाले अर्थात् भयंकर और समीपवर्ती जटाओंसे दीप्तिमान सिंहको सामने आया नहीं देखते । (१७) रत्नश्रवाका पुत्र और शत्रुओंपर विजय पानेवाला में रावण तुझे अवश्य ही जीवनका नाश करनेवाली अवस्था दिखाता हूँ। (१८) तब लक्ष्मणने कहा कि बहुत बोलने से क्या फायदा? तेरा शत्रु और मारनेवाला मैं नारायण उत्पन्न हुआ हूँ। (१६) इसपर रावणने कहा कि उस समय पिताके द्वारा निर्वासित और जंगली फलोंको खानेवाले तेरा नारायणत्व मैंने दीर्घ कालसे जाना है। (२०) तू अवश्य ही नारायण हो अथवा दूसरा कोई भी हो, किन्तु आज मैं तेरा ज़रूर मान भंग करूँगा। (२१) हे लक्ष्मण ! हाथमें आये हुये इस चक्रसे तू बहुत घमण्डी हो गया है, अथवा क्षुद्र लोगोंको खलके कारण भी महोत्सव होता है। (२२) बहुत कहनेसे क्या फायदा? मैं तुझे चक्र, खेचर, घोड़े और रथके साथ पाताल लोकमें भेजता हूँ। (२३) इस प्रकार कहे जाने पर रुष्ट उस नारायणने चक्रको घुमाकर लंकापतिके वधके लिए फेंका । (२४) खूब आवाज़ करने से भीषण और दीप्त चक्रको आते देख बाण, झसर और मुद्गरसे उसे रोकनेके लिए रावण प्रयत्नशील हुआ। (२५) हे १. बहुरण भासियव्येण प्रत्य० । २. अरी मु.। ३. अवि य को प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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