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________________ ७३.६] ४२१ ७३. दहवयणवहविहाणपव्वं परे भवे सुकयफलेण माणवा, महिड्डिया इह बहुसोक्खभायणा । महारणे जयसिरिलद्धसंपया, ससी नहा विमलपयावपायडा ॥ ३७ ॥ ।। इइ पउमचरिए चक्करयगुप्पत्ती नाम बावत्तरं पव्वं समतं ।। ७३. दहवयणवहविहाणपव्यं उप्पन्नचक्करयणं, दळूणं लक्खणं पवयजोहा । अहिणन्दिया समत्था. भणन्ति एकेकमेकेणं ॥ १ ॥ एयं तं फुडवियर्ड, अणन्तविरिएण नं पुरा भणियं । जायं संपइ सबं, कजं बल-केसवाणं तु ॥ २ ॥ जो एस चक्कपाणी. सो वि य नारायणो समुप्पन्नो । सीहरहम्मि विलग्गो एसो पुण होइ बलदेवो ॥ ३ ॥ एए महाणुभावा, भारहवासम्म राम-सोमित्ती । बलदेव-बासुदेवा, उप्पन्ना अट्ठमा नियमा ॥ ४ ॥ दटठण चक्कपाणिं, सोमित्ती रामणो विचिन्तेइ । तं संपइ संपन्न, अणन्तविरिएण जं भणियं ॥ ५॥ दठण आयवत्तं, जस्स रणे सयलगयघडाडोवा । भज्जन्ति खेयरभडा, भयविहलविसंतुला सत्त् ॥ ६ ॥ सायरसलिलसमत्था, हिमगिरिविझत्थली पुहइनारी । आणापणामकारी, दासि च महं बसे आसि ॥ ७ ॥ सो हं मणुएण कह, निणिऊणाऽऽलोइओ दसग्गीवो ? । वट्टइ इमा अवत्था, किं न हु अच्छेरयं एयं? ॥ ८ ॥ धिद्धि ! ति रायलच्छी, अदीहपेही मुहुत्तरमणिज्जा । परिचइऊणाऽऽढत्ता, एकपए दुजणसहावा ॥ ९ ॥ सकतके फलसे मनुष्य इस लोकमें बड़े भारी ऐश्वर्यसे युक्त, अनेक सुखोंके पात्र, महायुद्धमें जयश्रीरूपी सम्पत्ति पानेवाले तथा चन्द्रमाकी भाँति विमल प्रतापसे आच्छादित होते है। (३७) ॥ पद्मचरितमें चक्ररत्नको उत्पत्ति नामक बहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ ७३. रावणका वध चक्ररत्न जिसे उत्पन्न हुआ है ऐसे लक्ष्मणको देखकर सब वानर-योद्धा आनन्दित हुए और एक-दूसरेसे ऐसा वचन कहने लगे। (१) अनन्तवीर्य मुनिने पहले जो स्पष्ट और बिना छुपाये कहा था वह सब कार्य अब वलदेव और केशवका हो गया। (२) जो यह चक्रपाणि है वह भी नारायण रूपसे पैदा हुया है। सिंहरथमें बैठे हुए ये बलदेव हैं। (३) ये महानुभाव राम और लक्ष्मण भारतवर्षमें निश्चय ही आठवें बलदेव और वासुदेव रूपसे उत्पन्न हुए हैं। (४) चक्रपाणि लक्ष्मणको देखकर रावण सोचने लगा कि अनन्तवीर्यने जो कहा था वह अब सिद्ध हुआ। (५) युद्धमें जिसके छत्रको देखकर हाथियोंके समग्र घटाटोपसे सम्पन्न शत्रु खेचर-सुभट भी भयसे विह्वल और दुःखी होकर भाग जाते थे तथा सागरके जलके साथ हिमगिरि और विन्ध्यस्थली तककी पृथ्वी रूपी स्त्री दासीकी भाँति आज्ञाका पालन और प्रणाम करती हुई मेरे बसमें थी-ऐसा मैं दशग्रीव रावण मनुष्योंके द्वारा पराजित हो कैसा दिखाई देता हूँ? किन्तु यह भी अवस्था है। क्या यह एक आश्चर्य नहीं है ? (६-८) अदीर्घदर्शी, मुहूर्त भरके लिए रमणीय प्रतीत होनेवाली राज्यलक्ष्मीको धिक्कार है ! दुर्जनोंके जैसे स्वभाववाली यह एक ही साथ छोड़ने लगी है। (९) किंपाक-फलके जैसे भोग बादमें १. परभवसुक्य-प्रत्य० । २. एक्के किमं वयणं--मु.। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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