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________________ ४१० पउमचरियं [४७.८० पडियं च उत्तरिज्जं, भग्गं वेरुलियदण्डयं छत्तं । ताहे कयञ्जलिउडा, दइयं मन्दोयरी भणइ ॥ ८ ॥ विरहसरियाएँ सामिय!, वुज्झन्ती दुक्खसलिलभीमाए । उत्तारेहि महायस!, सिणेहहत्थावलम्बेणं ॥ ९ ॥ अन्नं पि सुणसु सामिय!, मह वयणं जइ वि नेच्छसि मणेणं । एयं पि य तुज्झ हियं, होहइ कडुओसह व जहा ॥१०॥ संसयतुलं वलग्गो, किं वा संसयसि णाह! अत्ताणं? । उम्मग्गेण रियन्तं, धरेह चित्तं समज्जायं ॥ ११ ॥ तुङ्ग विभूससु कुलं, सलाहणिज्जं च कुणसु अप्पाणं । अप्पेहि भूमिगोयर-महिला कलहस्स आमूलं ॥ १२ ॥ वइरिस्स अत्तणो वा, मरणं काऊण निच्छयं हियए । जुज्झिज्जइ समरमुहे, तह वि य किं कारणं तेणं? ॥ १३ ॥ तम्हा अप्पेहि इमा, सीया रामस्स पणयपीईए । परिवालेहि वयं तं, जं गहियं मुणिसयासम्मि ॥ १४ ॥ देवेहि परिग्गहिओ. जइ वि समो हवइ भैरहनाहेणं । तह वि अकित्ति पावइ, पुरिसो परनारिसङ्गेणं ॥१५॥ नो परनारीसु समं, कुणइ रई मूढभावदोसेणं । आसीविसेण समयं, कीलइ सो उग्गतेएणं ॥ १६ ॥ हालाहलं पिव विसं, हुयवहजालं व परमपज्जलियं । वंग्घि व विसमसीला, अहियं वजेह परमहिला ॥ १७ ॥ इन्दीवरघणसामो, गवियहसियं दसाणणो काउं । भणइ पिया ससिवयणे, किं व भयं उबगयासि तुमं ॥ १८ ॥ न य सो हं रविकित्ती, न चेव विज्जाहरो असणिघोसो । न य इयरो को वि नरो, जेण तुमं भाससे एवं ॥ १९ ॥ रिउपायबाण अग्गी. सो हं लङ्काहिवो सुपडिकूलो । न य अप्पेमि ससिमुही, सीया मा कुणसु भयसकं ॥ २० ॥ एव भणियम्मितो सा. ईसावसमुवगया महादेवी । जंपइ सीयाएँ समं, कि सामिय! रइसुह महसि ॥ २१ ॥ ईसाकोवेण तओ, पणइ कण्णुप्पलेण सा दइयं । भणइ य गुणाणुरूवं, किं दिटुं तीऍ सोहगं? ॥ २२ ॥ किं भूमिगोयरीए, कीरइ अहियं कलाविहीणाए। विज्जाहरीएँ समयं, भयसु पहू! नेहसंबन्धं ॥ २३ ॥ गया। तब मन्दोदरीने पतिसे हाथ जोड़कर कहा कि, हे स्वामी ! हे महायश ! दुःखरूप जलसे भयंकर ऐसी विरहरूपी नदीमें डूबती हुई मुझे आप स्नेहरूपी हाथका अवलम्बन देकर पार उतारें। (८-९) हे स्वामी ! यद्यपे आप मनसे नहीं चाहते, फिर भी मेरा कहना सुनें। कड़वी दवाकी भाँति यह भी आपके लिए हितकर होगा । (१०) हे नाथ ! संशयरूपी तराजूपर चढ़कर आप अपने आपको सन्देहमें क्यों डालते हो ? उन्मार्गमें भटकते हुए चित्तको आप मर्यादामें रखें । (११) आप अपने ऊँचे कुलको विभूषित करो और आत्माको श्लाघनीय बनाओ। भूमिपर विचरण करनेवाले मनुष्यकी कलहकी जड़रूप ऐसी स्त्रीको दे दो। (१२) शत्रु अथवा अपने मरणका मनमें निश्चय करके युद्धमें लड़ा जाता है। तथापि उसका क्या प्रयोजन है। (१३) अतएव प्रेमपूर्वक रामको यह सीता सौंप दो और मुनिके पास जो व्रत ग्रहण किया था उसका पालन करो । (१४) देवोंके द्वारा अनुगृहीत हो अथवा भरत राजाके जैसा हो, फिर भी परनारीके संसर्गसे मनुष्य अपयश प्राप्त करता है। (१५) जो अपनी मूर्खताके दोपसे परनार के साथ रति करता है वह उग्र तेजवाले श्राशीविष सर्पके साथ खेल खेलता है। (१६) हालाहल विपके जैसी, अत्यन्त प्रज्वलित अग्निकी ज्वाला सरीखी और भयंकर स्वभाववाली व्याघीके समान परनारीका एकदम त्याग करो। (१७) इन्दीवर कमल तथा बादलके समान श्यामवर्णवाले रावणने अभिमानके साथ हँसकर पत्नीसे कहा कि, हे शशिवदने ! तुम्हें डर क्यों लग रहा है ? (१८) मैं न तो रविकीर्ति हूँ, न विद्याधर अशनिघोप हूँ और न दूसरा कोई मनुष्य हूँ जिससे तुम ऐसा बोलती हो । (९) शत्रुरूपी वृक्षोंके लिए अग्नितुल्य विरोधी मैं लंकानरेश चन्द्रवदना सीताको नहीं दूंगा। तुम भयकी आशंका मत करो। (२०) इस प्रकार कहनेपर ईर्ष्याके वशीभूत हो उस पटरानीने कहा कि, हे नाथ ! क्या आप सीताके साथ रतिसुख चाहते हैं ? (२१) तब ईर्ष्या और कोपसे उसने अपने पतिको कर्णोत्पलसे प्रहार किया और कहा कि प्रशंसा करने योग्य कौन-सी सुभगता तुमने उसमें देखी है ? (२२) हे प्रभो! कलाविहीन और भूमिपर विहार करनेवाली स्त्रीके साथ अधिक स्नेह-सम्बन्ध क्यों करते हैं ? विद्याधरीके साथ स्नेहसम्बन्ध कीजिये । (२३) हे प्रभो ! आप १. महिलं-प्रत्य०। २. इमं सीयं--प्रत्य। ३. भरहराएणं-प्रत्य। ४. वग्धि व विसमसील अहियं वाजेह परमहिलं--प्रत्य०। ५. पियं-प्रत्य०। ६. ससिमुहिं सायं-प्रत्य०। ७. भणियमेत्ते सा--मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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