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________________ ७०.७] ७७. उज्जोयविहाणपन्च ४०६ निययनसभङ्गभीओ, गाढं वीरेकरसगओ धीरो । सत्थाण वि नाणन्तो, कज्जाकजं न लक्खेइ ॥ ५५ ॥ लाहिवस्स एत्तो, जं हिययत्थं तु कारणं सबं । साहेमि तुज्झ सेणिय, सुणेहि विगह पमोत्तणं ॥ ५६ ॥ जिणिऊण मोत्तण य पुत्तबन्धवा सके । पविसामि ण लङ्का है, करेमि पच्छा इमं कजं ॥ ५७ ।। सयलम्मि भरहवासे, उबासेऊण पायचारा हं । बल-सत्ति-कन्तिजुत्ता, ठवेमि विजाहरे बहवे ॥ ५८ : जेणेत्थ वंसे सुरदेवपुज्जा, जिणुत्तमा चक्कहरा य रामा । नारायणा तिबबला महप्पा, जायन्ति तुङ्गामलकित्तिमन्ता ॥ ५९ ॥ ॥ इय पउमचरिए रावणचिंताविहाणं एगूणसत्तरं पव्वं समत्तं ॥ ७०. उज्जोयविहाणपन्वं तत्तो सो दहवयणो, दियहे अइभासुरे सह भडेहिं । अत्थाणीऍ निविट्टो, इन्दो इव रिद्धिसंपन्नो ॥१॥ चरहार-कणयकुण्डल-मउडालंकारभूसियसरीरो । पुलयन्तो निययसह, अहियं चिन्तावरो जाओ ।। २ ।। भाया य भाणुकण्णो, इन्दइ घणवाहणो महं पुत्ता । हत्थ-पहत्था य भडा, एत्थ पएसे न दीसन्ति ॥ ३ ॥ ते तत्थ अपेच्छन्तो, रुट्ठो भडभिउडिभासुरं वयणं । काऊण देइ दिट्ठी, दहवयणो चक्करयणस्स ॥ ४ ॥ रोसपसरन्तहियओ, आउहसोला समुज्जओ गन्तुं । ताव य समुट्ठियाई, सहसा अइदुण्णिमित्ताई ॥५॥ अन्नण बच्चमाणो. पहओ चलणेण पायमग्गम्मि । छिन्नो य तस्स मग्गो, पुरओ वि हु किण्हसप्पेणं ॥ ६ ॥ हा हा धो! मा वच्चसु, तस्स सुणन्तस्स अकुसला सदा । जाया सहसुप्पाया, सउणा अजयावहा बहवे ॥ ७॥ नाशसे भयभीत और एकमात्र शृगाररसमें ही अत्यन्त लीन वह धीर शास्त्र जानने पर भी कार्य-अकार्यका विवेक नहीं कर सकता था । (५५) हे श्रेणिक ! अब मैं रावणके हृदयमें जो विचार था वह सब तुम्हें कहता हूँ। विग्रहका त्याग करके तुम सुनो । (५६) शत्रुसैन्यको जीतकर. सब पुत्र एवं भाइयोंको छुड़ाकर मैं लंकामें प्रवेश करूँगा। बादमें यह कार्य करूँगा । (५७) सारे भरतक्षेत्रमेंसे मनुष्योंका नाश करके बल, शक्ति व कान्तिसे युक्त बहुत-से विद्याधरोंको स्थापित करूँगा, जिससे इस वंशमें सुरेन्द्रोंके द्वारा पूज्य, उन्नत और विमल कीर्तिवाले तथा अत्यन्त बलशाली महात्मा जिनेश्वर, चक्रवर्ती, बलराम और नारायण पैदा हों। (५८-५६) ॥ पद्मचरितमें रावणको चिन्ताका विधान नामका उनहत्तरवाँ पर्व समाप्त हुआ । ७०. युद्धोद्योग तब एक अत्यन्त तेजस्वी दिनमें इन्द्रके समान ऋद्धिसम्पन्न रावण सुभटोंके साथ सभास्थानमें बैठा हुआ था। (१) उत्तम हार, सोनेके कुण्डल, मुकुट एवं अलंकारोंसे विभूषित शरीरवाला वह अपनी सभाको देखकर अधिक चिन्तातुर हुआ। (२) भाई भानुकर्ण, मेरे पुत्र इन्द्रजित और मेघवाहन तथा सुभट हस्त एवं प्रहस्त इस प्रदेशमें नहीं दीखते । (३) उन्हें वहाँ न देख रुष्ट रावणने सुभटकी भृकुटिसे देदीप्यमान मुख करके चक्ररत्नके ऊपर दृष्टि डाली। (४) हृदयमें व्याप्त रोषवाला वह आयुधशालामें जानेके लिए उद्यत हुआ। तब सहसा अत्यधिक खराब शकुन होने लगे। (५) पादमार्गसे जाते हुए उसे दूसरे पैरसे चोट पहुंची और सामनेसे काले साँपने उसके मार्गको काटा । (६) छीः छीः ! मत जावें-ऐसे अकुशल शब्द सुनते हुए उसे पराजयसूचक बहुत-से शकुन सहसा होने लगे। (७) उसका उत्तरीय गिर पड़ा, वैदूर्यके दण्डवाला छत्र टूट १. दिडिं-प्रत्य०। २. सालं-प्रत्य० । 2-4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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