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________________ ३८६ पउमचरियं [६३.११सोमित्ति ! तुज्झ देवा, कुणन्तु जीवस्स पालणं सबे । सिग्धं च विसल्लत्तं, वच्चसु अम्हं पि वयणेणं ॥ ११ ॥ एवं सा जणयसुया, रोयन्ती निययदेयरगुणोहा । कह कह वि खेयरीहिं, उवएससएसु संथविया ॥ १२ ॥ तुह देयरस्स भद्दे !, अज्ज वि मरणं न नजद्द निरुत्तं । वीरस्स विलवमाणी, मा सुयणु ! अमङ्गलं कुणसु ॥ १३ ॥ किंचि अणाउलहियया, सीया विज्जाहरीण वयणेणं । जावऽच्छइ तावऽन्नं, सेणिय! निसुणेसु संबन्धं ॥ १४ ॥ ताव च्चिय संपत्तो, दारं दुग्गस्स खेयरो एको । भामण्डलेण रुद्धो, पविसन्तो अमुणियायारो ॥ १५ ॥ विजाहरो पवुत्तो, जीवन्तं जइह इच्छसि कुमार । दावेह मज्झ पउम, तस्स उवायं परिकहेमि ॥ १६ ॥ एव भणियम्मि तो सो, नीओ भामण्डलेण तुट्टेणं । पउमस्स सन्नियासं, लक्खणकज्जुज्जयमणेणं ॥ १७ ॥ पायप्पडणोबगओ, जंपइ सो सामि ! सुणसु मह वयणं । जीवइ एस कुमारो, पहओ विज्जाउहेण पहू ! ॥ १८ ॥ ससिमण्डलस्स पुत्तो, नामेणं चन्दमण्डलो सामि !। सुप्पभदेवीतणओ, सुरगीवपुराहिवो अयं ॥ १९ ॥ विहरन्तो गयणयले, वेलाजक्खस्स नन्दणेण अहं । दिट्ठो उ वेरिएणं, सहस्सविजएण पावेणं ॥ २० ॥ अह मेहुणियावर, सुमरिय सो दारुणं रणं काउं । पहणइ चण्डरवाए, सत्तीऍ ममं परमरुट्ठो ॥ २१ ॥ पडिओ गयणयलाओ, तत्थ महिन्दोदए वरुज्जाणे । दढसत्तिसल्लिओ हं, दिट्ठो भरहेण साधूणं ॥ २२ ॥ चन्दणजलेण सित्तो, अहयं भरहेण कलुणजुत्तेणं । जाओ य विगयसल्लो, अईवबलकन्तिसंपन्नो ॥ २३ ॥ एयन्तरम्मि रामो, पुच्छइ तं खेयरं ससंभन्तो । जइ जाणसि उप्पत्ती, साहसु मे तस्स सलिलस्स ॥ २४ ॥ सो भणइ देव ! निसुणसु, अयं जाणामि तस्स उप्पत्ती । परिपुच्छिएण सिटुं, भरहनरिन्देण मे सबं ॥ २५ ॥ जह किल नयरसमग्गो, देसो रोगेण पीडिओ सबो । उवधाय-जरय-फोडव-दाहाऽरुइ-सूलमाईसु ॥ २६ ॥ हे लक्ष्मण ! तुम्हारे प्राणोंकी रक्षा सब देव करें। मेरे वचनसे तुम शीघ्र ही शल्यरहित हो जाओ। (११) इस तरह अपने देवरके गुणोंको याद करके रोती हुई सीताको खेचरियोंने अनेक उपदेश देकर किसी तरह शान्त किया। (१२) हे भद्रे ! तुम्हारे देवरका आज भी मरण निश्चित रूपसे ज्ञात नहीं हुआ। हे सुतनु ! विलाप करके वीरका अमंगल मत करो। (१३) विद्याधरियोंके वचनसे जब सीता कुछ निराकुल हृदयवाली हुई, उस समय जो अन्य घटना घटी उसके बारेमें भी, हे श्रेणिक ! तुम सुनो । (१४) उस समय एक विद्याधर दुर्गके द्वारके पास आया। अज्ञात याचारवाला वह प्रवेश करने पर भामण्डलके द्वारा रोका गया। (१५) उस विद्याधरने कहा कि यदि कुमार जीवित रहे यह चाहते हो तो मुझे रामके दर्शन कराओ। मैं उन्हें उपाय कहूँगा । (१६) ऐसा कहने पर तुष्ट और लक्ष्मणके लिए उद्यत मनवाला भामण्डल उसे रामके पास ले गया । (१७) पासमें जाकर और पैरोंमें पड़कर उसने कहा कि, हे स्वामी ! आप मेरा कहना सुनें। हे प्रभो ! विद्याधरके द्वारा आहत यह कुमार जीवित है। (१८) हे स्वामी ! चन्द्रमण्डल नामका में शशिमण्डल का पुत्र, सुप्रभादेवीका तनय तथा सुरग्रीवका पुरोहित हूँ। (१६) गगनतलमें विहार करता हुआ मैं वेलायक्षके पुत्र पापी सहस्रविजय शत्रु द्वारा देखा गया । (२०) सालीके वरको याद करके उसने दारुण युद्ध किया। अत्यन्त रुट उसने चण्डरवा शक्ति द्वारा मुझ पर प्रहार किया। (२१) दृढ़ शक्तिसे पीड़ित मैं आकाशमेंसे महेन्द्रोदय नामक सुन्दर उद्यानमें जा गिरा। वहाँ साधुपुरुष भरतने मुझे देखा । (२२) करुणायुक्त भरत द्वारा चन्दन जलसे सिक्त मैं शल्यरहित हो अतीव बल एवं कान्तिसे सम्पन्न हुआ। (२३) तव घबराये हुए रामने उस खेचरसे पूछा कि उस जलकी उत्पत्तिके बारेमें यदि तुम जानते हो तो कहो । (२४) उसने कहा कि, हे देव! आप सुनें। में उस जलकी उत्पत्तिके विषयमें जानता हूँ। पूछने पर भरत राजाने सब कुछ मुझे कहा था । (२५) यदि सारा नगर अथवा सारा देश उपद्रव, ज्वर, फोड़ा-फुन्सी, दाह, अरुचि एवं शूल आदि रोगोंसे पीड़ित हो तो वह उससे नीरोग हो जाता है। (२६) १. रोचयन्ती स्मरन्तीत्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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