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________________ ५६४ पउमचरियं ५५ ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ ६१ ॥ ॥ ६२॥ चिन्तेइ इमे साहू, इहट्टिया समयरक्खणट्टाए । घोरे उत्तासणए, रण्णे बहुसावयाइणे ॥ भामण्डलेण एवं चिन्तेउं पाणरक्खणनिमित्तं । साहूण समासन्ने, विज्जासु कयं पुरं परमं ॥ काले देसे य पुरं, समागया गोचरेण ते समणा । पडिलाइ महप्पा, चंउविहआहारदाणेणं ॥ एवं क्रमेण ताणं, चाउम्मासी गया मुणिवराणं । भामण्डलेण वि तओ, दाणफलं अज्जियं विउलं ॥ ५८ ॥ भामण्डलो कयाई, सह सुन्दरम हिलियाऍ उज्जाणे । असणिहओ उववन्नो, देवकुराए तिपल्लाऊ ॥ ५९ ॥ दाणेण भोगभूमी, लहइ नरो तवगुणेण देवतं । नाणेणं सिद्धिसुहं, पावइ नत्थेत्थ संदेहो ॥ ६० ॥ पुणरवि भणइ सुरिन्दो, अहोगईं लक्खणो समणुपत्तो । उबट्टो य महामुणि !, ठाणं कंवणं तु पाविहिइ ? ॥ निज्जरिय कम्मनिवहं, लँभिही कवणं गईं च दहह्वयणो ? । को व भवोहामि अहं ?, एयं इच्छामि नाउं जे भइ त बलदेवो, सुणेहि देविन्द! आगमिस्साणं । उक्कित्तणं भवाणं, लङ्काहिव - लच्छिनिलयाणं ॥ नरयाउ समुत्चिण्णा, कमेण सुरपबयस्स पुषेणं । विजयावइनयरीए, मणुया ते दो वि होहिन्ति ॥ ताणं पिया सुणन्दो, नणणी वि य हवइ रोहिणी नामं । सावयकुलसंभूया, गुरुदेवयपूयणाहिरया ॥ अइसुन्दररूवधरा, नामे अरहदास - सिरिदासा । काऊण सावयत्तं देवा होहिन्ति सुरलोए ॥ चइया तत्थेव पुरे, मणुया होऊण सावया परमा । मुणिवरदाणफलेणं, होहिन्ति नरा य हरिवरिसे ॥ भोगं भोत्तूण मया, देवा होहिन्ति देवलोगम्मि । चइया तत्थेव पुरे, नरवइपुत्तौ हवीहन्ति ॥ वाउकुमारस्स सुया, लच्छीदेवीऍ कुच्छिसंभूया । अमरिन्दसरिसरुवा, जयकन्त-जयप्पहा धीरा ॥ काऊण तवमुयारं, देवा होहिन्ति लन्तए कप्पे । उत्तमभोगठिईया, उत्तमगुणधारया धीरा ॥ ७० ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ ६५ ॥ ६६ ॥ ६७ ॥ ६८ ॥ ६९ ॥ [ ११८. ५५ वनमें ठहरे हुए हैं। (५५) ऐसा सोचकर प्राणोंकी रक्षाके लिए भामण्डलने साधुओंके पास विद्याओं द्वारा उत्तम नगरका निर्माण किया । (५६) काल और देशको जानकर वे श्रमण नगर में गोचरीके लिए गये। महात्मा भामण्डलने चतुर्विध आहारका साधुओंको दान दिया । (५७) इस तरह क्रमसे उन मुनिवरोंका चातुर्मास व्यतीत हुआ। उस समय भामण्डलने दानका विपुल फल अर्जित किया । (५८) किसी समय सुन्दर महिलाओंके साथ भामण्डल उद्यानमें था । उस समय बिजली गिरनेसे मरकर देवकुरुमें तीन पल्योपमकी आयुष्यवाला वह उत्पन्न हुआ है । (५६) मनुष्य दानसे भोगभूमि, तपसे देवत्व और ज्ञानसे मोक्ष सुख पाता है, इसमें सन्देह नहीं । (६०) सुरेन्द्र पुनः पूछा कि, हे महामुनि ! लक्ष्मणने अधोगति पाई है । उस गतिमेंसे बाहर निकलकर वह कौन-सा स्थान पावेगा ? (६१) कर्मसमूहकी निर्जरा करके रावण कौन-सी गति पावेगा ? और मैं क्या हूँगा ? मैं यह जानना चाहता हूँ। (६२) तब बलदेव रामने कहा कि लंकाधिप रावण और लक्ष्मणके आगामी भवोंका वर्णन सुनो । (६३) नरकमेसे निकलकर वे दोनों ही क्रमशः मेरुपर्वतके पूर्व में आई हुई विजयावती नगरी में मनुष्य होंगे। (६४) उनका पिता सुनन्द और माता श्रावक कुल उत्पन्न तथा गुरु एवं देवताके पूजनमें अभिरत रोहिणी नामकी होगी । (६५) अविसुन्दर रूप धारण करनेवाले अर्हदास और श्रीदास नामके वे श्रावक धर्मका पालन करके देवलोकमें देव होंगे । (६६) च्युत होने पर उसी नगरमें मनुष्य होकर उत्तम श्रावक होंगे। मुनिवरको दिये गये दानके फल स्वरूप हरिवर्षमें भी वे मनुष्य रूपसे उत्पन्न होंगे। (६७) भोगका उपयोग करके मरनेपर देवलोकमें वे देव होंगे । च्युत होनेपर उसी नगरमें राजा पुत्र होंगे । (६८) लक्ष्मीदेवीकी कुक्षिसे उत्पन्न वे वायुकुमारके जयकान्त और जयप्रभ्रनाम के धीर पुत्र अमरेन्द्रके रूपके समान सुन्दर रूपवाले होंगे। (६६) उग्र तप करके लान्तक कल्पमें धीर, उत्तम भोग और स्थितिवाले तथा उत्तम गुणोंके धारक वे देव १. चड व्विहाहार० - प्रत्य० । २. सुंदरिम० प्रत्य• । ३. कमणं - प्रत्य० । ४. लभिहिति कमणं गतिं च प्रत्य• । ५. ०सा य भवि० - प्रत्य• । ६. ०न्दरुवसरिसा, उ० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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