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११८. पउमणिव्वाणगमणपव्वं
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नमिऊण पुच्छइ सुरो, भयवं ! जे एत्थ दसरहाईया । लवणं-ऽकुसा य भविया, साहसु कवणं गेहूं पता एव पुच्छिओ सो, बलदेवो भणइ आणए कप्पे । वट्टइ अणरण्णसुओ, देवो विमलम्बराभरणो ॥ ते दो विनय-कणया, केगइ तह सुप्पहा य सोमित्ती । अवराइयाऍ समयं, इमाई सग्गोववन्नाहं ॥ णाण-तव-संजमदढा, विसुद्धसीला लवं ऽकुसा धीरा । गच्छोहन्ति गुणधरा, अबाबाहं सिवं ठाणं ॥ एव भणिओ सुरिन्दो, अञ्च्चन्तं हरिसिओ पुणो नमिउं । पुच्छइ कहेहि भयवं!, संपइ भामण्डलस्स गईं ॥ तो भणइ सीरधारी, सुरवर ! निसुणेहि ताव संबन्धं । चरिएण तुज्झ भाया, जेणं चिय पावियं ठाणं ॥ अह कोसलापुरीए, घणवन्तो अस्थि वज्जको नामं । पुत्ता असोय - तिलया, तस्स पिया मयरिया भज्जा ॥ निवासिय सुणेउ, सीयं सो दुक्खिओ तओ जाओ । चिन्तेइ सा अरण्णे, कह कुणइ धिरं महाघोरे अहियं किवालुओ सो, संविग्गो जुइमुणिस्स सोसतं । पडिवज्जिऊण जाओ समणो परिवज्जियारम्भो ॥ अह अन्नया कयाई, असोग-तिलया गया जुइमुणिन्दं । पणमन्ति आयरेणं, पियरं च पुणो पुणो तुट्ठा ॥ सोऊण धम्मंरयणं, सहसा ते तिबजाय संवेगा । 'दोण्णि वि जुइस्स पासे, असोय-तिलया विणिक्खन्ता ॥ काऊण तवं घोरं, कालगओ उवरिमम्मि गेवेज्जे । उववन्नो तत्थ जुई, महाजुई उत्तमो देवो ॥ ते तत्थ पिया पुत्ता, कुक्कुडनयरं समुज्जया गन्तुं । संवेयनणियभावा, वन्दणहेउं निणिन्दस्स ॥ पन्नास नोयणाई, गयार्णं अह अन्नया समणुपत्तो । नवपाउसो महाघणतडिच्छडाडोवसलिलोहो ॥ तो गिरिवरस्स हेट्ठे, नोगत्था मुणिवरा दढधिईया । नन्तेण कोसलाए, दिट्ठा नणयस्स पुत्तेणं ॥ ५४ ॥
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साथ देव वहीं जमीन पर बैठा । ( ३६ ) वन्दन करके देवने पूछा कि हे भगवन् ! यहाँ जो दशरथ आदि तथा लवण और अंकुश भव्य जीव थे वे किस गतिमें गये हैं, यह आप कहें। (४०) ऐसा पूछने पर उस बलदेवने कहा कि अनरण्यका पुत्र देवरूपसे उत्पन्न होकर निर्मल वस्त्र एवं अलंकार युक्त हो आनत कल्पमें रहता है । ( ४१ ) वे दोनों जनक कन्याएँ तथा अपराजिता के साथ कैकेई, सुप्रभा और सुमित्रा - ये स्वर्गमें उत्पन्न हुए हैं । (४२) ज्ञान, तप एवं संयममें दृढ़ विशुद्ध शीलवाले, धीर और गुणोंके धारक लवण और अंकुश अव्याबाध शिवस्थानमें जाएँगे । (४३)
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इस प्रकार कहे जाने पर अत्यन्त हर्षित सुरेन्द्रने नमन करके पुनः पूछा कि, भगवन् ! अब आप भामण्डल की गतिके बारेमें कहें। (४४) तब रामने कहा कि, हे सुरवर! जिस आचरणसे तुम्हारे भाईने जो स्थान पाया है उसका वृत्तान्त तुम सुनो । (४५) कोशलापुरीमें वज्रक नामका एक धनवान् रहता था । उसके अशोक और तिलक नामके दो पुत्र तथा प्रिय भार्या मकरिका थी । (४६) निर्वासित सीता के विषय में सुनकर वह दुःखित हुआ और सोचने लगा कि अतिभयंकर अरण्य में वह धीरज कैसे बाँधती होगी ? (४७) अत्यन्त दयालु वह विरक्त होकर आरम्भका परित्याग करके और द्युतिमुनिका शिष्यत्व अंगीकार करके श्रमण हो गया । (४८) एक दिन अशोक और तिलक द्युतिमुनिके पास गये । इषित उन्होंने पिताको आदरसे पुनः पुनः वन्दन किया । (४६) धर्मरत्नका श्रवण करके सहसा तीव्र वैराग्य उत्पन्न होने पर दोनों अशोक और तिलकने द्युतिमुनिके पास दीक्षा ली । (५०) घोर तप करके मरने पर द्युतिमुनि ऊर्ध्व ग्रैवेयकमें महाद्युतिवाले उत्तम देव हुए। (५१)
संवेगभाव जिन्हें उत्पन्न हुआ है ऐसे वे पिता और पुत्र जिनेन्द्र के दर्शनार्थ कुक्कुटनगरकी ओर जाने के लिए उद्यत हुए । (५२) पचास योजन जाने पर एक दिन बड़े बादलमें बिजलीकी घटासे युक्त जलसमूहवाला अभिनव वर्षाकाल आ गया । (५३) तब पर्वतके नीचे योगस्थ और दृढ़ बुद्धिवाले मुनिवरों को साकेतकी ओर जाते हुए जनकके पुत्र भामण्डलने देखा । (५४) वह सोचने लगा कि सिद्धान्त की रक्षाके लिए ये इस घोर, उद्वेगजनक और अनेक जंगली जानवरोंसे भरे पूरे
१. गयं प० - प्रत्य० । २. ० यतणया मु० । ३. ०सा वीरा । गच्छीहिंति - प्रत्य० । ४ घणमंतो अस्थि वजगो नाः - प्रत्य• । ५. ०म्मसवणं-प्रत्य॰ । ६. दो वि जुइस्स य पासे - प्रत्य० । ७. चरिकण तवं - प्रत्य० । ८. जुई, महइमहा उ० – प्रत्य० । ६. ०ण तह – मु० । ७५
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