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________________ ५६० पउमचरियम [११७.४५सणिऊण वयणमेयं, सीयादेवो तओ सुपरितुद्यो । नमिऊण सीरधारि. निययविमाणं गओ सिग्धं ॥ ४५ ॥ एवं सुरासुरा ते, केवलनाणी कमेण थोऊण गया । विहरइ महामुणी विय, संसहरकरनियरसरिसविमलाभतणू ॥ ४६॥ ॥ इइ पउमचरिए पउमस्स केवलनाणुप्पत्तिविहाणं नाम सत्तदसुत्तरसयं पव्वं समत्तं ।। ११८. पउमणिव्वाणगमणपव्वं अह सो सीयाइन्दो, नरयत्थं लक्खणं 'सुमरिऊणं । अवइण्णो मणवेगो, पडिबोहणकारणुज्जुत्तो ॥ १॥ सो लचिऊण पढम, सक्करपुढवि च वालयापुढविं । पत्थे चिय पेच्छइ, नेरइया तत्थ दुक्खत्ता ॥ २ ॥ पढमं सुरेण दिट्ठो, संबुक्को घणकसायपरिणामो । घोरगिमाइयाई, अणुहोन्तो तिव्वदुक्खाई ॥ ३ ॥ अन्ने वि तत्थ पेच्छइ, नेरइया हुयवहम्मि पक्खित्ता । डज्झन्ति आरसन्ता, नाणाचेट्टासु दीणमुहा ॥ ४ ॥ केएल्थ सामलीए, कण्टयपउराएँ विलइया सन्ता । ओयरणा-ऽऽरुहणाई, कारिज्जन्तेत्थ बहुयाइं ॥ ५॥ जन्तेसु केइ छुढा, पीलिज्जन्ते पुरा अकयपुण्णा । कन्दसु उद्धपायाडज्झन्ति अहोमुहा अन्ने ॥६॥ असिचक्कमोग्गरहया, लोलन्ता कक्खडे धरणिवढे । खज्जन्ति आरसन्ता, चित्तय-वय-वग्ध-सीहेहिं ॥ ७॥ पाइज्जन्ति रडन्ता, सुतत्ततवुतम्बसन्निभं सलिलं । असिपत्तवणगया वि य, अन्ने छिज्जन्ति सत्थेहिं ॥ ८ ॥ प्रणाम करके शीघ्र ही अपने विमानमें गया। (४५) इस तरह केवलज्ञानीकी क्रमशः स्तुति करके वे सुर चले गये। चन्द्रमाकी किरणोंके समूहके समान निर्मल कान्ति युक्त शरीरवाले महामुनिने भी विहार किया। (१६) ॥ पद्मचरितमें रामको केवलज्ञानकी उत्पत्तिका विधान नामक एक सौ सत्रहवाँ पर्व समाप्त हुआ। ११८. रामका निर्वाणगमन वह सीतेन्द्र नरकस्थ लक्ष्मणको याद करके उसके प्रतिबोधके लिए उद्यत हो मन के वेगकी भाँति नीचे उतरा। (१) पहली रत्नप्रभा पृथ्वी तथा दूसरी शर्करा पृथ्वी और तीसरी बालुका पृथ्वीको लाँघकर चौथी पंक पृथ्वीमें रहे हए दुःखसे आर्त नारकोंको उसने देखा । (२) देवने प्रथम घने काषायिक परिणामवाले शंबूकको भयंकर अग्नि आदि तीव्र दुःखोंका अनुभव करते हुए देखा । (३) वहाँ उसने आगमें फेंके गये, जलते हुए, चिल्लाते हुए और नानाविध चेष्टाओं द्वारा दीन मुखवाले नारकियोंको देखा । (४) वहाँ कितने कण्टकप्रचुर शाल्मलिके पेड़ों पर चढ़ाकर बहुतबार उतारा-चढ़ाया जाता था। (५) पूर्वजन्ममें पुण्य न करनेवाले कई यंत्रों में फेंककर पीसे जाते थे। पैर ऊपर और सिर नीचा किये हुए दूसरे हाँड़ोंमें जलाये जाते थे। (६) तलवार, चक्र और मुगदरसे आहत नारकी कठोर जमीन पर लोटते थे और चिल्लाते हुए वे चीतों, भेड़ियों, बाघ और सिंहों द्वारा खाये जाते थे। (७) रोते हुए कितनेको पानी जैसा अत्यन्त तप्त काँसा और ताँबा पिलाया जाता था। असिपत्र नामक बनमें गये हुए दूसरे शस्त्रोंसे काटे जाते थे। (८) १. ससिकरणियर०-प्रत्य० । २. समरि०-मु०। ३. ओसरणा-मु०। ४. लोलिता--प्रत्य० । ५. •तउसण्णिभं कलकलिंतं असि०--प्रत्य० । ६. भं कललं-मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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