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________________ ११७. ४४ ] ११७. पउमकेवलनाणुप्पत्तिविहाणपव्वं ३२ ॥ ३३ ॥ एए य अन्ने य, करणनिओगेसु तत्थ पउमाभो । न य खुभिओ धीरमणो, अहियं झाणं चिय पवन्नो ॥३०॥ जाहे विउबणाहिं, सुरेण न य तस्स खोभियं झाणं । ताहे कम्मरिउबलं, नट्टं पउमस्स निस्सेसं ॥ ३१ ॥ माहस्स सुद्धपक्खे, बारसिरत्तिम्मि पच्छिमे जामे । पउमस्स निरावरणं, केवलनाणं समुत्पन्नं ॥ एतो केवलनाणं, उप्पन्नं नाणिऊण सुरपवरा । रामस्स सन्नियासं, समागया सयलपरिवारा ॥ गय· तुरय-सह- सरि- जाण - विमाणा - SSसणाई मोत्तणं । वन्दन्ति सुरा पउमं, तिक्खुत्तपयाहिणावत्तं ॥ सोयाइन्दो वि तओ, केवलमहिमं च तत्थ काऊणं । पणमइ बलदेवमुणि, पउञ्जमाणो थुइसयाई ॥ बहुदुक्खनला पुणं, कसायगाहा उलं भंवावत्तं । संनमपोयारूढो, संसारमहोयहिं तिण्णो ॥ झाणाणिलाहणं, विहितविन्धण महन्त नलिएणं । नाणाणलेण राहव !, तुमए जम्माडवी दड्ढा ॥ वेरग्गमोग्गरेणं, विचुष्णियं णेहपञ्जरं सिग्धं । निहओ य मोहसतू, उवसमसूलेण धीरेणं ॥ भइ सुरो मुणिवसभं, संसारमहाडभिमन्तस्स । केवललद्धाइसयं, तुह" मह सरणं भवविणासं ॥ ३९ ॥ एयं संसारनई, बहुदुक्खावत्तअरइकल्लोलं । एत्थ निबुड्डु राहव !, उत्तारसु नाणहत्थेणं ॥ ४० ॥ भइ तओ मुणिवसहो, मुञ्चसु दोसासयं इमं रागं । लहइ" सिवं तु अरागी, रागी पुण भमइ संसारे ॥४१॥ जह बाहासु सुराहिव, उत्तरिउं नेव तीरए उयही । तह न य तीरइ तरिउं, भवोयही सीलरहिएहिं ॥ ४२ ॥ १३ नाणमयदारुणं, तवनियमायासबद्ध कढिणेणं । संसारोयहितरणं, हवइ " परं धम्मषोएणं ॥ ४३ ॥ राग-दोसविमुको, पुरिसो तव - नियम - संजमाउत्तो । झाणेक्कनणियभावो, पावइ सिद्धिं न संदेहो ॥ ४४ ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ १४ ३४ ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ राम क्षुब्ध नहीं हुए और ध्यान में अधिक लीन हुए । (३०) जब वैक्रियक शक्ति द्वारा देव उनके ध्यानको क्षुब्ध न कर सका तब रामका कर्मरूपी समग्र शत्रुसैन्य नष्ट हो गया । (३९) माघ महीने के शुक्ल पक्षकी द्वादशीकी रात के पिछले प्रहरमें रामको आवरण रहित केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । (३२) केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसा जानकर देव परिवारके साथ रामके पास आये । (३३) हाथी, घोड़े, वृषभ एवं सिह के यान, विमान एवं आसनोंका त्याग करके देवोंने तीन प्रदक्षिणा देकर रामको वन्दन किया । (३४) तब सीतेन्द्र ने भी वहाँ केवल ज्ञानका उत्सव मनाकर सैकड़ों स्तुतियों का प्रयोग करके बलदेवमुनिको बन्दन किया । (३५) बहुत दुःखरूपी जलसे पूर्ण, कषायरूपी ग्राहोंसे युक्त और भव रूपी आवर्तवाले संसार रूपी महोदधिको संयम रूपी नौका पर आरूढ़ हो तुमने पार किया है । (३६) हे राघव ! ध्यानरूपी वायुसे आहत और विविध तप रूपी ईंधनसे खूब जली हुई ज्ञान रूपी आगसे तुमने जन्मरूपी श्रटवी को जला डाला है। (३७) हे नाथ! वैराग्यरूपी मुद्गरसे तुमने पिंजरेको तो शीघ्र ही तोड़ डाला है। धीर तुमने उपशमरूपी शूलसे मोहरूपी शत्रुको मार डाला है। (३) देवने कहा कि, हे मुनिवृषभ ! संसाररूपी महाटवीं में घूमते हुए मेरे लिए तुम्हारा भवविनाशक केवलज्ञानातिशय शरणरूप है । ( ३६ ) यह संसाररूपी नदी नाना दुःखोंरूपी भँवरों और खेदरूपी तरंगों से युक्त है। हे राघव ! इसमें डूबे हुए को ज्ञानरूपी हाथसे पार लगा दो । (४०) ५८६ तब मुनिवरने कहा कि दोषयुक्त इस रागका त्याग करो। अरागी मोक्ष पाता है, जब कि रागी संसार में घूमता है । (४१) हे सुराधिप ! जिस तरह भुजाओंसे समुद्र नहीं तैरा जाता उसी तरह शीलरहितोंसे भवोदधि नहीं तैरा जाता । (४२) परंतु ज्ञानरूपी लकड़ीसे बनाये गये और तप एवं नियम में किये जानेवाले श्रम द्वारा मज़बूती से बाँधे गये धर्मरूपी जहाज़से संसारसागरको तैरा जा सकता है । (४३) राग-द्वेष से रहित, तप, नियम एवं संयमसे युक्त और ध्यानसे उत्पन्न काय भाववाला पुरुष सिद्धि पाता है, इसमें सन्देह नहीं । (४४ ) यह कथन सुनकर अत्यन्त हर्षित सीतेन्द्र हलधर Jain Education International १. ०र मुणी प्रत्य० । २ ० उघणं, न० - प्रत्य० । ३. ० पक्खेक्कारसि० प्रत्य० । ४. ० वलिमहिमं च सुविउलं काउं । प० - प्रत्य० । ५. ० मुर्णि, उक्कित्तंतो गुणसयाई — प्रत्य० । ६. ब्लाइण्णं - प्रत्य० । ७. भयावत्तं मु० । ८. ०ग्घं । इणिओ य मोहसत्तू उत्तमलेसातिसूलेणं - प्रत्य• । ६. ०ढविं वसंतस्स - प्रत्य० । १०. तुहुं - प्रत्य• । ११. इ य सिवं अ० - प्रत्य० । १२. • एवं - प्रत्य• । १३. नाणकय • मु० । १४. ०इ तओ धम्म० - प्रत्य• । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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