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________________ ११४. बलदेवणिक्खमणपव्र्व २५ ॥ 1 २६ ॥ विविहाभिग्गहधारी, पुबङ्गसुएण भावियमईओ । तवभावणाइयाओ, भावेउं भावणाओ य ॥ २३ ॥ अह निम्गओ मुणी सो, गुरूण अणुमोइओ पउमनाहो । पडिवन्नो य विहार, एक्काई सत्तभयरहिओ || २४ ॥ गिरिकन्दरट्टियस्स य े, रयणीए तोऍ तस्स उप्पन्नं । पउमस्स अवहिनाणं, सहसा झाणेकचिचस्स ॥ अवहिविसएण ताहे, सुमरइ लच्छीहरं पउमणाहो । अवियहकामभोगं, नरयावत्थं च दुक्खतं ॥ संयमेग कुमारत्ते, तिण्णेव संयाणि मण्डलित्ते य । चत्तालीस य विजए, जस्स उ संवच्छरोऽतीया ॥ एक्कारस य सहस्सी, पञ्चेव सया तहेव सहिजुया । वरिसाणि महारज्जे, जेण सयासे ठिया विसया ॥ बारस चेव सहस्सा, हवन्ति वरिसाण सबसंखाए । भोत्तूण इन्दियमुहं गओ य नरयं अनिमियप्पा ॥ देवाण को व दोसो, परभव जणियं समागयं कम्मं । बन्धवनेहनिहेणं, मओ गओ लक्खणो नरयं ॥ मह तस्स नेहबन्धो, वसुदत्ताईभवेसु बहुसुं । आसि पुरा मह झीणो, संपइ सबो महामोहो ॥ एवं जणो समत्थो, बन्धवनेहाणुरायपडिबद्धो | धम्मं असद्दहन्तो, २७ ॥ २८ ॥ २९ ॥ ३० ॥ ३१ ॥ परिहिण्डर दोहसंसारे ॥ ३२॥ एवं सो बलदेवो, एगागी तत्थ कन्दरुद्देसे | चिट्ठइ सज्झायरओ, दुक्खविमोक्खं विचिन्तेन्तो ॥ ३३ ॥ एयं चिय निक्खमणं, बलदेवमुणिस्स सुणिय एयमणा । होह निणधम्मनिरया, "निच्चं भो विमलचेट्टिया सप्पुरिसा ॥ ३४ ॥ ॥ इइ पउमचरिए बलदेव' निक्खमणं नाम चउद्दसुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ ११४. ३४ ] एकाकी परिभ्रमण करने लगे । (२२) विविध प्रकारके अभिग्रहोंको धारण करनेवाले तथा पूर्व एवं अंग श्रुतसे भावितं बुद्धिवाले उन्होंने तपोभावना आदि भावनाओं से अपनेको भावित किया । (२३) ५८३ तक गुरु द्वारा अनुमोदित वे राम मुनिने विहार किया और सात प्रकारके भयसे रहित हो एकाकी विहार करने लगे । (२४) उस रात पर्वतकी कन्दरा में स्थित हो ध्यानमें एकाग्रचित्तवाले रामको सहसा अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ । (२५) अवधिज्ञानसे रामने कामभोगकी तृष्णा रखनेवाले, दुःखार्त और नरकमें स्थित लक्ष्मणको याद किया । (२६) जिसके एक सौ वर्ष कुमारावस्थामें तीन सौ वर्ष माण्डलिक राजाके रूपमें और चालीस विजय करने में बीते । (२७) महाराज्यमें जिसके पास ग्यारह हजार, पाँच सौ साठ वर्ष तक सब देश अधीन रहे । (२८) इस प्रकार कुल बारह हजार होते हैं । असंयतात्मा वह इन्द्रियसुखका उपभोग करके नरक में गया । (२६) इसमें देवों का क्या दोष है ? परभवमें पैदा किया गया. कर्म उदयमें आया है। भाईके स्नेहके कारण मर करके लक्ष्मण नरकमें गया है । (३०) पहले वसुदत्त आदि अनेक भवोंमें मेरा उसके साथ स्नेहसम्बन्ध था । अब मेरा सारा महामोह क्षीण हो गया है । (३१) इस तरह सब लोग बन्धुजनों के. स्नेहानुरागमें बद्ध होकर धर्म पर अश्रद्धा करके दीर्घ संसार में परिभ्रमण करते हैं । ( ३२ ) इस प्रकार वह बलदेव राम उस गुफा प्रदेशमें दुःखके नाशकी चिन्ता करते हुए स्वाध्यायमें रत होकर एकाकी रहते थे । (३३) हे निर्मल चेष्टा करनेवाले सत्पुरुषो ! इस तरह बलदेव मुनिका निष्क्रमण एकाग्र भावसे सुनकर नित्य जिनधर्म में निरत रहो । (३४) ॥ पद्मचरितमें बलदेवका निष्क्रमण नामका एक सौ चौदहवाँ पर्व समाप्त हुआ | १. ०हार, उत्तमसामत्थसंपण्णी - प्रत्य० । २. उप्रत्य० । ३. सयसत्त कु० मु० । ४. सया य मंडलीए य-प्रत्य० । ५. ०राणि तहा— प्रत्य० । ६. ०रसा, सपंचणवया त० मु० । ७. ०ण पंचवित्रूणा । भो० मु० । ८. ०सु सव्वेसु प्रत्य• । ९. क्खवणं - - प्रत्य• । १०. ०स्स निसुणिउं एय० मु० । ११. मुणिउ - प्रत्य० । १२. निच्चं वो वि० - प्रत्य० । १३. ० वमुणिस्स नि० मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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