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________________ ५८१ ११४.६] ११४. बलदेवणिक्खमणपव्वं तं भासिऊण राम, निययं संपत्थिया सुरा ठाणं । भुञ्जन्ति उत्तमसुह, जिणवरधम्माणुभावेणं ॥ ६७ ॥ पेयविभवेण एत्तो. सक्कारेऊण लक्खणं रामो । पुहईऍ पालणद्वे, सिग्घं चिय भणइ सत्तग्घं ॥ ६८ ॥ वच्छ! तुम सयलमिणं, भुञ्जसु रजं नराहिवसमग्गो । संसारगमणभीओ, पविसामि तवोवणं अयं ॥ ६९ ॥ सत्तग्यो भणइ तओ. अलाहि रजेण दोग्गइकरेणं । संपइ मोत्तण तुमे, देव ! गई नत्थि मे अन्ना ॥ ७० ॥ न कामभोगा न य बन्धुबग्गा, न चेव अत्थो न बलं पभूयं । कुणन्ति ताणं सरणं च लोए, जहा सुचिण्णो विमलो हु धम्मो ॥ ७१ ॥ ।। इइ पउमचरिए कल्लाणमित्तदेवागमणं नाम तेरसुत्तरसय पव्वं समत्तं ।। ११४. बलदेवणिक्खमणपव्वं परलोगनिच्छियमणं, सत्तुग्धं जाणिऊण पउमाभो । पेच्छइ आसन्नत्थं, अणङ्गलवणस्स अङ्गरुहं ॥ १॥ तं ठवइ कुमारवरं समत्तवसुहाहिवं निययरज्जे । रामो विरत्तभोगो, आउच्छइ परियणं ताहे ॥२॥ एत्तो बिहीसणो वि य. सुभूसणं नन्दणं निययरज्जे । ठावेइ अङ्गय पि य, सदेसणाहं तु सुग्गीवो ॥ ३ ॥ एवं अन्ने वि भडा, मणुया विज्जाहरा य पुचाणं । दाऊण निययरज, पउमेण समं सुसंविम्गा ॥ ४ ॥ पउमो संविग्गमणो, सेटिं तत्थागयं अरहदासं । पुच्छइ स सावय ! कुसलं, सबालवुड्डस्स सङ्घस्स ॥ ५ ॥ तो भणइ अरहदासो, सामि! तुमे दुक्खिए जणो सबो। दुर्ख चेव पवन्नो, तह चेव विसेसओ सङ्घो ॥ ६ ॥ तुमको मैंने देखा । क्या यह पर्याप्त नहीं है ? (६६) इसप्रकार रामके साथ वार्तालाप करते वे देव अपने स्थान पर गये और जिनधर्मके प्रभावसे उत्तम सुखका उपभोग करने लगे। (६७) इसके पश्चात् वैभवके साथ लक्ष्मणका प्रेत संस्कार करके पृथ्वीके पालनके लिए शीघ्र ही शत्रघ्नसे कहा कि, हे वत्स! राजाओंसे युक्त इस समग्र राज्यका तुम उपभोग करो। संसारमें भ्रमणसे भयभीत मैं तपोवनमें प्रवेश करूँगा। (६८-६) तब शत्रुघ्नने कहा कि दुर्गतिकारक राज्यसे मुझे प्रयोजन नहीं। हे देव! आपको छोड़कर अब मेरी दूसरी गति नहीं है। (७०) न कामभोग, न बन्धुवर्ग, न अर्थ और न बड़ा भारी सैन्य ही लोकमें वैसा रक्षणरूप या शरणरूप होता है, जैसा कि सम्यगूरूपसे आचरित विमल धर्म त्राण और शरणरूप होता है। (७१) ॥ पद्मचरितमें कल्याण करनेवाले भित्र-देवोंका आगमन नामक एक सी तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥: . ११४. बलदेव (राम) का निष्क्रमण परलोकमें निश्चित मनवाले शत्रुघ्नको जानकर रामने समीपमें बैठे हुए अनंगलवणके पुत्रको देखा । (१) समस्त वसुधाके स्वामी उस कुमारवरको अपने राज्य पर स्थापित किया। फिर भोगोंसे विरक्त रामने परिजनोंसे पूछा। (२) उधर विभीषणने अपने राज्य पर सुभूषण नामके पुत्रको और सुग्रीवने अपने देशके स्वामी अंगदको स्थापित किया। (३) इस तरह दूसरे भी सुभट, मनुष्य और विद्याधर पुत्रोंको अपना राज्य देकर रामके साथ विरक्त हुए। (४) मनमें वैराग्ययुक्त रामने वहाँ आये हुए सेठ अर्हदाससे पूछा कि, हे श्रावक ! बालक एवं वृद्धसहित संघका कुशलक्षेम तो है न? (५) तब अर्हदासने कहाकि, हे स्वामी! आपके दुःखित होने पर सब लोगोंने दुःख पाया है और विशेषतः संघने । (६) श्रावकने कहा कि हे स्वामी! मुनिसुव्रतकी परम्परामें हुए सुव्रत नामके चारणश्रमण इस १. •ण माहप्पं । पे०-प्रत्य०। २. समत्थव० मु.। -३. सो मित्त ! तु०-प्रत्य० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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