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________________ ५५२ पउमचरियं [१०५. ३०तं कम्ममहारणं, सयलं झाणाणलेण डहिऊणं । रईवद्धणो महप्पा, पत्तो सिवसासयं मोक्खं ॥ ३० ॥ कहिया जे तुज्झ मए. एत्तो पियंकर-हियंकरा भवा । गेवेजचुया सेणिय !, जाया लवण-ऽ'कुसा धीरा ॥३१॥ देवी सुदरिसणा वि य. सणियाणा हिण्डिऊण संसारे । निजरिय जुबइकम्म, सिद्धत्थो खुड्डुओ जाओ ॥३२॥ पुबसिणेहेण तओ, कया य लवण-ऽकुसा अईकुसला । सिद्धन्थेण नराहिव!, रणे य अवराइया धीरा ॥३३॥ *एवं सुणेऊण भवोहदुक्खं, जीवाण संसारपहे ठियाणं । - 'तुम्मे य सबे वि सयाऽपमत्ता, करेह धम्म विमलं समत्था ॥ ३४ ॥ ॥ इइ पउमचरिए लवणं-ऽकुसपुत्वभवाणुकित्तणं नाम चउरुत्तरसयं पव्वं समत्तं ॥ १०५. महु-केढवउवक्खाणपव्वं चइऊण य पइ-पुत्ते, निक्खन्ता तिबजायसंवेगा । जे कुणइ तवं सीया, ते तुज्झ कहेमि मगहवई ! ॥ १ ॥ तइया पुण सवजणो, उवसमिओ सयलभूसणमुणोणं । जाओ जिणधम्मरओ, भिक्खादाणुज्जओ अहियं ॥ २॥ जा आसि सुरवहूणं, सरिसी लायण्ण-जोबणगुणेहिं । सा तवसोसियदेहा, सीया दड्डा लया चेव ॥ ३ ॥ पञ्चमहबयधारी, दुब्भावविवज्जिया पयइसोमा । निन्दन्ती महिलत्तं, कुणइ तवं बारसवियप्पं ॥ ४ ॥ लोयकयउत्तमङ्गी, मलकञ्चुयधारिणी तणुसरीरा । छट्ट-ऽट्टम-मासाइसु, सुत्तविहीणं कयाहारा ॥ ५॥ रह-अरइविप्पमुक्का, निययं सज्झाय-झाणकयभावा । समिईसु य गुत्तीसु य, अविरहिया संजमुज्जुत्ता ॥६॥ हुए । (२६) कर्मरूपी उस समग्र महारण्यको ध्यानरूपी अग्निसे जलाकर महात्मा रतिवर्धनने शिव और शाश्वत मोक्षपद पाया। (३०) हे श्रेणिक ! मैंने तुमसे जिन प्रियंकर और हितंकरके भवोंके बारे में कहा वे अवेयकसे च्युत होने पर धीर लवण और अंकुश हुए हैं। (३१) सुदर्शना देवी भी अनुक्रमसे संसारमें परिभ्रमण करती हुई स्त्री-कर्मकी निर्जरा करके क्षुल्लक सिद्धार्थ हुई है। (३२) हे राजन् ! पूर्वस्नेहवश सिद्धार्थने लवण और अंकुशको अत्यन्त कुशल, धीर और युद्ध में अपराजित बना दिया है। (३३) इस तरह संसार मार्गमें स्थित जीवोंके संसार-दुःखको सुनकर समर्थ तुम सब सदा अप्रमत्त होकर निर्मल धर्मका आचरण करो। (३४) ॥ पद्मचरितमें लवण और अंकुशके पूर्वभवोंका अनुकीर्तन नामक एक सौ चौथा पर्व समाप्त हुआ । १०५. मधु-कैटभका उपाख्यान हे मगधपति ! पति और पुत्रोंका त्याग करके तीव्र संवेग उत्पन्न होने पर दीक्षित सीताने जो तप किया उसके बारेमें मैं कहता हूँ। (२) उस समय सकलभूषण मुनिद्वारा उपशमप्राप्त सब लोग जिनधर्म में निरत और भिक्षा-दानमें अधिक उद्यनशील हुए। (२) सौन्दर्य एवं यौवनमें जो देववधुओं सरीखी थी वह तपसे शोषित शरीरवाली सीता जली हुई लताके जैसी मालूम होती थी। (३) पाँच महाव्रतोंको धारण करनेवाली, दुर्भावनासे रहित और स्वभावसे ही सौम्य वह स्त्रीभावकी निन्दा करती हुई बारह प्रकारके तप करने लगी । (४) सिर परके बालोंका लोंच किए हुई और मलिन चोली धारण करनेवाली दुर्बलदेहा वह शास्रोक्त विधिके साथ बेला तेला, मासश्रमण आदि तपश्चर्या करके आहार लेती थी।। ५) रति और अरतिसे मुक्त, सतत भावपूर्वक स्वाध्याय एवं ध्यान करनेवाली और संयममें उद्यत वह समिति एवं गुप्तिमें निरत रहती थी। (६) १. ऊणं । सिरिवद्ध०-मु.। २, सयं ठाणं--प्रत्य० । ३. दत्थो चेल्लओ जा०-प्रत्य०। ४. एयं-प्रत्य.। ५. तुम्भेहि सब्वे--प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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