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________________ ५५१ १०४. २६] १०४. लवणं-ऽङसपुव्वभवाणुकित्तणपर्व कसिवेण निठुराए, गिराएँ निब्भच्छिओ गओ दूओ । सबं सवित्थरं तं, कहेइ निययस्स सामिस्स ॥ १४ ॥ सणिऊण यवयणं, अह सो भडचडयरेण महएणं । निष्फिडइ सबगुत्तो, कसिवस्सुवरि अइतुरन्तो ॥ १५ ॥ पइसरह सबगुत्तो, कासोपुरिसन्तियं तओ देसं । कसिवो वि निययसेन्नं, तुरियं मेलेइ दढसत्तो ॥ १६ ॥ रइवद्धणेण पुरिसो, कसिवस्स पवेसिओ निसि पोसे । पत्तो साहेइ फुड, देव ! तुम आगओ सामी ॥ १७ ॥ सणिऊण अपरिसेसं. वत्तं कसिवो गओ अइतुरन्तो । पेच्छइ उज्जाणत्थं, सपुत्त-महिलं निययसामि ॥ १८॥ अन्तेउरेण समयं, पणमइ सामि तओ सुपरितुट्ठो । कसिवो कुणइ महन्तं, निययपुरे संगमाणन्दं ॥ १९ ॥ रइवद्धणेण समरे, कसिवसमग्गेण सबगुत्तो सो । भग्गो पइसइ रणं, पुलिन्दसरिसो तओ जाओ ॥ २० ॥ पुणरवि कायन्दीए, राया रइवद्धणो कुणइ रजं । कसिवो वि भयविमुक्को, भुञ्जइ वाणारसिं मुइओ ॥ २१ ॥ काऊण सुइरकालं, रज रइवद्धणो सुसंविग्गो । समणस्स सन्नियासे, सुभाणुनामस्स पबद्दओ ॥ २२ ॥ विजयावली वि पढम, चत्ता मन्तीण सोगिणी मरिउं । नियकम्मपभावेणं, उप्पन्ना रक्खसी धोरा ॥ २३ ॥ तइया तस्सुवसग्गे, कोरन्ते रक्खसीऍ पावाए । रइवद्धणस्स सहसा, केवलनाणं समुप्पन्नं ॥ २४ ॥ काऊण य पबज, दो वि नणा पियहियंकरा समणा । पत्ता गेवेज्जिड्डिं, चउत्थभवलद्धसम्मत्ता ॥ २५ ॥ सेणिय | चउत्थनम्मे, सामलिनयरीऍ वामदेवसुया । वसुनन्द-सुनन्दभिहा, आसि च्चिय बम्भणा पुर्व ॥ २६ ॥ अह ताण महिलियाओ, विस्सावसु तह पियंगुनामाओ। विप्पकुलजाइयाओ, जोवण-लायण्णकलियाओ ॥२७॥ दाऊण य सिरितिलए, दाणं साहुस्स भावसंजुत्तं । आउक्खए सभज्जा, उत्तरकुरवे समुप्पन्ना ॥ २८ ॥ भोग भोत्तण तओ, ईसाणे सुरवरा समुप्पन्ना । चझ्या बोहिसमग्गा, पियंकर-हियंकरा जाया ॥ २९ ॥ कशिप द्वारा कठोर वचनोंसे तिरस्कृत दूत लौट आया और अपने स्वामीसे सब कुछ विस्तारपूर्वक कहा। (१४) दूतका कथन सुनकर बड़ी भारी सुभट-सेनाके साथ सर्वगुप्त कशिपके ऊपर आक्रमण करने के लिए जल्दी निकल पड़ा। (१५) काशीपुरीके समीपके देशमें सर्वगुप्तने प्रवेश किया। दृढ़ शक्तिवाले कशिपने भी तुरन्त ही अपनी सेना भेजी। (१६) रतिवर्धनने रातमें प्रदोषके समय कशिपके पास आदमी भेजा। जाकर उसने स्फुट रूपसे कहा कि, देव! आपके स्वामी आये हैं। (१७) सारी बात सुनकर कशिप एकदम जल्दी गया और उद्यानमें ठहरे हुए अपने स्वामीको पुत्र और पत्नीके साथ देखा । १८) तब अत्यन्त आनन्दित कशिपने अन्तःपुरके साथ अपने स्वामीको प्रणाम किया और अपने नगरमें मिलनका महान् उत्सव मनाया। (१६) कशिपके साथ रतिवर्धन द्वारा हराये गये उस सर्वगुप्तने अरण्यमें प्रवेश किया और भील जैसा हो गया । (२०) रतिवर्धन राजा पुनः काकन्दीमें राज्य करने लगा। भयसे विमुक्त कशिप भी आनन्दके साथ वाराणसीका उपभोग करने लगा। (२१) । सुचिरकाल तक राज्य करके संवेगयुक्त रतिवर्धनने सुभानु नामके श्रमणके पास दीक्षा ली। (२२) मन्त्री द्वारा पूर्वमें त्यक्त विजयावली भी दुःखित होकर मरी और अपने कर्मके प्रभावसे भयंकर राक्षसीके रूप में उत्पन्न हुई। (२३) उस समय पापी राक्षसी द्वारा उपसर्ग किये जानेपर उस रतिवर्धनको सहसा केवल ज्ञान हुआ। (२४) प्रव्रज्या लेकर चौथे भवमें सम्यक्त्व प्राप्त किये हुए दोनों ही प्रियंकर और हितंकर श्रमणोंने प्रैवेयककी ऋद्धि प्राप्त की। (२५) हे श्रेणिक ! पूर्वकालमें, चौथे भवमें, शामलीनगरीमें वामदेवके वसुनन्द और सुनन्द नामके दो ब्राह्मणपुत्र थे। (२६) उनकी ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न तथा यौवन एवं लावण्यसे युक्त विश्वावसु और प्रियंगु नामकी भार्याएँ थीं। (२७) श्रीतिलक नामके साधुको भावपूर्वक दान देनेसे आयुका क्षय होने पर वे भार्याओंके साथ उत्तरकुरुमें उत्पन्न हुए। (२८) वहाँ भोगोंका उपभोग करके ईशान देवलोकमें वे देव रूपसे उत्पन्न हुए। वहाँसे च्युत होने पर सम्यक्त्वके साथ वे प्रियंकर और हितंकर १. कासीपुरस.-मु०। २ गेवेजठिई, च.-मु०। ३. वामदेविया । वसुदेवसुया जाया, भासि-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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