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________________ ५४४ पउमचरियं [१०३. ८४सज्झाय-झाणनिरओ. जिइन्दिओ समिइ-गुत्तिसंजुत्तो । सत्तभयविप्पमुक्को, सए वि देहे निरवयक्खो॥४॥ छट्ट-ऽट्टमाइएहिं, जेमन्तो मासखमणजोगेहिं । विहरइ मुणी महप्पा, कुणमाणो नज्जर कम्मं ।। ८५ ॥ एवं भावियकरणो, सिरिचन्दो दढसमाहिसंजुत्तो । कालगओ उववन्नो, इन्दो सो बम्भलोगम्मि ।। ८६ ॥ तत्थ विमाणे परमे, चूडामणिमउडकुण्डलाभरणो । 'सिरि-कित्तिलच्छिनिलओ, निदाहरविसन्निभसरीरो ॥ ८७ ॥ मणनयणहारिणीहिं, देवीहिं परिमिओ महिड्डीओ । भुञ्जइ विसयसुहं सो, सुराहिवो बम्भलोगत्थो ॥ ८८ ॥ एवं सो धणदत्तो, तुज्झ बिहीसण! कमेण परिकहिओ । संपइ साहेमि फुडं, पगयं वसुदत्तसेट्टीणं ॥ ८९ ।। नयरे मिणालकुण्डे, परिवसइ नराहिवो विजयसेणो। नामेण रयणचूला, तस्स गुणालंकिया भज्जा ॥ ९० ॥ पुत्तो य वज्जकंच , तस्स वि महिला पिया उ हेमवई । तीए सो सिरिकन्तो, नाओ पुत्तो अह सयंभू ॥११॥ जिणसासणाणुरत्तो, पुरोहिओ तस्स होइ सिरिभूई । तस्स वि गुणाणुरूवा, सरस्सई नाम वरमहिला ॥ ९२ ।। ना आसि गुणमई सा, भमिउं नाणाविहासु नोणीसु । इत्थी सकम्मनडिया, उप्पन्ना गयवहू रण्णे ॥ ९३ ।। मन्दाइणीऍ पङ्के, तीऍ निमग्गाए जीयसेसाए । अह देइ कण्णजावं, तरङ्गवेगो गयणगामी ॥ ९४ ॥ तत्तो सा कालगया, सरस्सईकुच्छिसंभवा जाया । वेगवई वरकन्ना, दुहिया सिरिभूइविप्पस्स ॥ ९५॥ अह सा कयाइ गेहे, साहु भिक्खागय उवहसन्ती । पियरेण वारिया निच्छएण तो साविया जाया ॥ ९६ ॥ अइरूविणीऍ तीऍ, करण उक्कण्ठिया पुहइपाला । नाया मयणावत्था, सबे वि सयंभुमादीया ॥ ९७ ॥ जइ वि य कुवेरसरिसो, मिच्छादिट्टी नरो ह्वइ लोए । तह वि य तस्स कुमारी,न देमि तो भणइ सिरिभूई॥९८॥ विभूषित शरीरवाला, स्वाध्याय व ध्यानमें निरत, जितेन्द्रिय, समिति और गुप्तिसे युक्त, इहलोकभय, परलोकभय आदि सात , भयसे मुक्त, अपनी देह में भी अनासक्त, वेले, तेले आदि तथा मासक्षमग (लगातार एक महीनेका उपवास ) के योगके वाद भोजन करनेवाला वह महात्मा मुनि कर्मको जर्जरित करता हुआ विहार करने लगा। (८३-८५) इस तरह शुद्ध आचारवाला तथा दृढ़ समाधिसे युक्त श्रीचन्द्र मरकर ब्रह्मलोकमें इन्द्र के रूपमें उत्पन्न हुआ। (८६) उस उत्तम विमानमें चूडामणि, कुण्डल एवं आभरणोंसे सम्पन्न, श्री, कीर्ति एवं लक्ष्मीका धामरूप, ग्रीष्मकालीन सूर्य के जैसा शरीरवाला वह अमलोकस्य महर्दिक इन्द्र मन ओर आँखोंको आनन्द देनेवाली देवियोंसे घिरकर विषयसुखका अनुभव करता था। (८७-८) हे विभीपण ! इस तरह धनदत्तके बारेमें मैंने क्रमशः तुमसे कहा। अब मैं वासुदेव श्रेष्ठीका वृत्तान्त स्फुट रूपसे कहता हूँ।(6) मृणालकुण्ड नगरमें विजयसेन राजा रहता था। गुणोंसे अलंकृत रत्नचूड़ा नामकी उसकी भार्या थी। (80) पुत्र वनकंचुक और उसकी प्रिय पत्नी हेमवती थी। वह श्रीकान्त उससे स्वयम्भू नामक पुत्रके रूपमें उत्पन्न हुआ। (६१) उसका जिनशासनमें अनुरक्त श्रीभृति नामका एक पुरोहित था। उसको भी सरस्वती नामकी गुणानुरूप उत्तन स्त्री थी। (१२) जो गुणमती स्त्री थी वह नानाविध योनियों में भ्रमण करके अपने कर्मोंसे दुःखी हो अरण्यमें एक हथनीके रूपमें पैदा हुई। (६३) मन्दाकिनीके कीचड़में निमग्न उसके जब प्राग निकलने बाकी थे तब गगनगामी तरंगवेगने कानों में नमस्कारमंत्रका जाप किया। (६४) वहाँसे मरने पर सरस्वतीकी कुक्षिसे उत्पन्न वेदवती नामकी वह उत्तम कन्या श्रीभूति ब्राह्मणकी पुत्री हुई। (९५) किसी समय भिक्षाके लिए घरमें आये हुए साधुओंका उपहास करनेवाली उसे पिताने रोका। तब वह निश्चयसे श्राविका हुई । (६६) उस रूपवतीके लिए उत्कण्ठित स्वयम्भू आदि सभी राजा कामातुर हुए। (६७) भले ही लोकमें कुबेर जैसा हो, पर यदि वह मिथ्यादृष्टि होगा तो मैं उसे लड़की नहीं दूंगा, ऐसा श्रीभूतिने कहा । (६८) इस पर रुष्ट १. सिरि-कन्तिल०-मु०। २ ०ण मए वि पर०-प्रत्यः। ३. ओ हवइ तस्स सरि---प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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