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________________ १०३. २६] १०३. रामपुव्वभव-सीयापव्वजाविहाणपव्वं पत्तो वि माणुसतं, विसयसुहासायलोलुओ मूढो । सकलत्तनेहनडिओ, न कुणइ जिणदेसियं धम्मं ॥ ६८॥ इन्दधणु-फेण-बुब्बुय-संझासरिसोवमे मणुयजम्मे । जो न कुणइ जिणधम्मं, सो हु मओ वच्चए नरयं ॥ ६९ ।। होइ महावेयणियं, नरए हण-दहण-छिन्दणाईयं । जीवस्स सुइरकालं, निमिसं पि अलद्धसुहसायं ॥ ७० ॥ तिरियाण दमण-बन्धण-ताडण-तण्हा-छुहाइयं दुक्खं । उप्पज्जइ मणुयाण वि, बहुरोगविओगसोगकयं ॥ ७१ ॥ भोत्तण वि सुरलोए, बिसयसुहं उत्तम चवणकाले । अणुहवइ महादुक्खं, जीवो संसारवासत्थो ॥ ७२ ॥ जह इन्धणेसु अग्गी, न य तिप्पइ न य जलेसु वि समुद्दो । तह जीवो न य तिप्पइ, विउलेसु वि कामभोगेसु॥७३॥ नो पवरसुरसुहेसु वि, न य तित्ति उवगओ खलो जोवो । सो कह तिप्पइ इण्हि, माणुसभोगेसु तुच्छेसु ॥७४॥ तम्हा नाऊण इम, 'सुमिणसमं अधुवं चलं जीयं । नरवइ ! करेहि धम्मं, जिणविहियं दुक्खमोक्खट्टे ॥७५॥ सायार-निरायारं, धर्म निणदेसियं विउपसत्थं । सायारं गिहवासी, कुणन्ति साहू निरायारं ।। ७६ ॥ हिंसा-ऽलिय-चोरिक्का-परदार-परिग्गहस्स य नियत्ती । एयाइं सावयाणं, अणुबयाई तु भणियाइं ॥ ७७ ॥ एयाई चेव पुणो, महबयाई हवन्ति समणाणं । बहुपज्जयाई नरवइ !, संसारसमुद्दतरणाई ॥ ७८ ॥ सावयधम्म काऊण निच्छिओ लहइ सुरवरमहिड्डि । समणो पुण घोरतवो, पावइ सिद्धिं न संदेहो ॥ ७९ ॥ दुविहो वि तुज्झ सिट्टो, धम्मो अणुओ तहेव उक्कोसो । एयाणं एक्कयर, गेण्हसु य ससत्तिनोगेणं ॥ ८० ॥ तं मुणिवरस्स वयणं, सिरिचन्दो निसुणिऊण परितुट्टो । तो देइ निययरजं, सुयस्स घिइकन्तनामस्स ।। ८१ ।। मोत्तण पणइणिजणं, रुयमाणं महुरमञ्जलपलावं । सिरिचन्दो पबइओ, पासम्मि समाहिगुत्तस्स ।। ८२ ॥ उत्तमवयसंजुत्तो, तिजोगधारी विसुद्धसम्मत्तो । चारित्त-नाण-दसण-तव-नियमविभूसियसरीरो ।। ८३ ।। जिनेश्वरप्रोक्त धर्मका आचरण नहीं करता। (६८) इन्द्रधनुष, फेन, बुदबुद और सन्ध्या तुल्य क्षणिक मानवजन्ममें जो जिनधर्मका पालन नहीं करता वह मरकर नरकमें जाता है। (६९) नरकमें निमिष भरके लिए सुख शान्ति प्राप्त न करके सुचिर काल पर्यन्त जीवको वध दहन, छेदन आदि अत्यन्त दुःख झेलना पड़ता है। (७०) तिर्यचोंको दमन, बन्धन, ताड़न, तृषा, क्षुधा आदि दुःख होता है। मनुष्यों को भी अनेक प्रकारके रोग, वियोग एवं शोकजन्य दुःख उत्पन्न होते हैं। (७१) देवलोकमें उत्तम विषयसुखका उपभोग करके च्यवनके समय संसारमें रहा हुआ जीव महादुःख अनुभव करता है । (७२) जिस तरह ईधनसे आग और जलसे समुद्र तृप्त नहीं होता उसी तरह विपुल कामभोगोंसे भी जोव तृत नहीं होता। (७३) जो दुष्ट जीवके उत्तम सुखोंसे तृप्त न हुआ वह यहाँ तुच्छ मानवभोगोंसे कैसे तृप्त हो सकता है ? (७४) अतएव हे राजन् ! स्वप्नसदृश, क्षणिक एवं चंचल इस जीवनको जानकर दुःखके विनाशके लिए जिनविहित धर्मका आचरण करो । (७५) विद्वानों द्वारा प्रशंसित जिन-प्रोक्त धर्म सागार और अनगारके भेदसे दो प्रकारका है। गृहस्थ सागारधर्मका और • साधु अनगारधर्मका पालन करते हैं। (७६) हिंसा, झूठ, चोरी, परदार एवं परिग्रहसे निवृत्ति --ये श्रावकोंके अणुव्रत कहे गये हैं। (७७) हे नरपति! अनेक भेदोंवाले तथा संसार-समुद्रसे पार उतारनेवाले ये ही श्रमणोंके महाव्रत होते हैं। (७८) श्रावकधर्मका पालन करके मनुष्य अवश्य ही देवोंकी महती ऋद्धि प्राप्त करता है और घोर तप करनेवाला श्रमण मोक्ष पाता है, इसमें सन्देह नहीं। (७६) मैंने तुम्हें अणु और उत्कृष्ट दो प्रकारका धर्म कहा। अपनी शक्तिके अनुसार इनमें से कोई एक तुम ग्रहण करो। (८०) मुनिवरका ऐसा उपदेश सुनकर अत्यन्त हर्षित श्रीचन्द्रने अपना राज्य धृतिकान्त नामक पुत्रको दे दिया। (८१) रोती और मधुर मंजुल प्रलाप करती युवतियोंका त्याग करके श्रीचन्द्रने समाधिगुप्त मुनिके पास दीक्षा ली । (८२) उत्तम व्रतसे युक्त, मन-वचन-कायाके निग्रहरूप तीन प्रकारके योगको धारण करनेवाला, चारित्र, ज्ञान, दर्शन, तप एवं नियमसे १. मुविण-प्रत्य० । 'हरूप तीना त्याग कीचन्दने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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