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________________ पउमचरियं २१ ॥ सलिले थले य पुणरवि, पुषं दढबद्धवेरे संपण्णा । उप्पज्जन्ति मरन्ति य, घायन्ता चेव अन्नोन्नं ॥ अह सो भाइविओगे, धणदत्तो वसुमहं परिभमन्तो । तण्हाकिलामियङ्गो, रति समणासमं पत्तो ॥ २२ ॥ सो भणइ मुणिवरे ते, देह महं पाणियं सुतिसियस्स । सयलजगज्जीवहिया, अहियं धम्मप्पिया तुब्भे ॥ २३ ॥ तं एक्को भणइ मुणी, संथाविन्तो य महुरवयणेहिं । अमयं पि न पायबं, भद्द ! तुमे किं पुणो सलिलं ॥ २४॥ मच्छी-कीड - पयङ्गा, केसा अन्नं पि नं असुज्झं तं । भुञ्जन्तएण रत्ति, तं सर्व्वं भक्खियं नवरं ॥ २५ ॥ अत्थमि दिवसयरे, जो भुञ्जइ मूढभावदोसेणं ! सो चउगइवित्थिण्णं, संसारं भमइ पुणरुतं ॥ २६ ॥ लिङ्गी व अलिङ्गी वा, जो भुइ सबरीसु रसगिद्धो । सो न य सोग्गइगमणं, पावइ अचरित्तदोसेणं ॥ २७ ॥ जे सबरी पुरिसा, भुञ्जन्तिह सीलसंजमविणा । महु-मज्ज-मंसनिरया, ते जन्ति मया महानरयं ॥ २८ ॥ हीणकुलसंभवा वि हु, पुरिसा उच्छन्नदार - घण-सयणा । परपेसणाणुकारी, जे भुत्ता रयणिसमयम्मि ॥ २९ ॥ करचरणफुट्टकेसा, बीभच्छा दूहवा दरिद्दा य । तण दारुनीविया ते, जेहि य भुतं वियालम्मि ॥ जे पुण जिणवरधम्मं, घेत्तु महु-मंस-मज्जविरई च । न कुणन्ति राइभत्तं, ते हुन्ति सुरा महिड्डीया ॥ ते तत्थ वरविमाणे, देवीसय परिमिया विसयसोक्खं । भुंजन्ति दीहकाएं, अच्छरसुग्गीय माहप्पा ॥ चऊण इहायाया, नरवइवंसेसु खायकित्ती । उवभुञ्जिऊण सोक्खं पुणरवि पावन्ति सुरसरिसं ॥ पुणरवि निणवरधम्मे, बोहिं लहिऊण गहियवय-नियमा । काऊण तवमुयारं, पाविति सिवालयं वीरौ ॥ अइआउरेण वि तुमे, भद्द ! वियाले न चेव भोत्तमं । मंसं पि वज्जियबं आमूलं सब दुक्खाणं ॥ ३० ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ ३५ ॥ मजबूती से बाँधे हुए वैर-संपन्न होकर वे जलमें और स्थल में पुनः पुनः उत्पन्न होते थे और एक-दूसरेका घात करते हुए मरते थे । (२१) उधर भाई के वियोग में पृथ्वी पर परिभ्रमण करता हुआ वह धनदत्त तृष्णासे क्लान्त शरीरवाला होकर रात के समय श्रम गोंके आश्रम में जा पहुँचा । (२२) उसने उन मुनिवरोंसे कहा कि आप समय जगत्के जीवोंके हितकारी और धर्मप्रिय हैं। खूब प्यासे मुझको आप जल दें । (२३) मधुर वचनोंसे शान्त करते हुए एक मुनिने उसे कहा कि, हे भद्र ! रातके समय अमृत भी नहीं पिलाना चाहिए, फिर पानी की तो क्या बात ? (२४) मक्खी, कीड़े, पतिंगे, बाल तथा दूसरा भी जो दिखाई नहीं देता वह सब रात में भोजन करनेवाले मनुष्यने अवश्य ही खाया है । (२५) सूर्यके अस्त होने पर जो मूर्खतावश खाता है वह चारों गतियों में फैले हुए संसारमें बारम्बार भटकता है। (२६) लिंगी या अलिंगी जो रसमें गृद्ध हो तके समय खाता है वह अचारित्र के दोष के कारण सद्गतिमें नहीं जाता । (२७) शील एवं संयमसे हीन तथा मधु, मद्य एवं मांसमें निरत जो पुरुष इसलोकमें रातके समय भोजन करते हैं वे मरकर महानरकमें जाते हैं । (२८) जो मनुष्य रातके समय खाते हैं वे हीन कुलमें उत्पन्न होने पर भी पत्नी, धन एवं स्वजनोंसे रहित हो दूसरेकी नौकरी करते हैं । (२६) जो असमय में खाते हैं वे टूटे हुए हाथ-पैर और बालों वाले, बीभत्स, कुरूप, दरिद्र एवं घास-लकड़ी पर जीवन गुजारनेवाले होते हैं । (३०) और जो जिनवरके धर्मको ग्रहणकर मधु, मांस और मद्यसे विरत होते हैं तथा रात्रिभोजन नहीं करते वे भारी ऋद्धिवाले देव होते हैं । (३२) अप्सराओं द्वारा जिनका माहात्म्य गाया जाता है ऐसे वे वहाँ उत्तम विमानमें सैकड़ों देवियोंसे घिरकर दीर्घकाल पर्यन्त विषयसुखका उपभोग करते हैं । (३२) वहाँसे च्युत होकर यहाँ आये हुए वे ख्यातकीर्ति वाले राजकुलोंमें उत्पन्न होकर पुनः देवसदृश सुखका उपभोग करते हैं । (३३) पुनः जिनवर के धर्ममें बोधि प्राप्त करके व्रत नियमोंको धारण करनेवाले वे वीर उदार तप करके मोक्ष प्राप्त करते हैं । (३४) हे भद्र! अत्यन्त आतुर होने पर भी तुम्हें असमयमें नहीं खाना चाहिए और सब दुःखोंके मूल रूप मांसका भी त्याग करना चाहिए । (३५) १. ०रसंवद्धा । उ० मु० । २. ० गजीवहियया प्रत्य० । ३. इहं आया - प्रत्य० । ४. धीरा - प्रत्य० 1 ५४० Jain Education International [ १०३. २१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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