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________________ ६७. २६] ६७. लवणं-ऽकुसुप्पत्तिपव्वं भिक्खट्टे विहरन्तो, कमेण पत्तो घरं विदेहाए । दिट्टो ससंभमाए, पणओ य विसुद्धभावाए ॥ १६ ॥ दाऊण आसणवरं, सोया सवृत्तमन्नपाणेणं । पडिलाइ पहट्टा. सिद्धत्थं सबभावेणं ॥ १७ ॥ निबत्ताहारो सो, सुहासणत्थो तओ विदेहाए । परिपुच्छिओ य साहइ, निययं चिय हिण्डणाईयं ॥ १८॥ सो तत्थ चेल्लसामी, द९ लवणङ्कसे सुविम्हविओ । पुच्छइ ताण पउत्ति, सीया वि य से परिकहेइ ॥ १९ ॥ परिमुणियकारणो सो, रुयमाणिं नणयनन्दिणि दटुं । अइदारुणं किवालू , सिद्धत्थो दुक्खिओ जाओ ॥ २० ॥ अट्टङ्गनिमित्तधरो, सिद्धत्थो भणइ मा तुर्म सोगं । कुणसु खणं एक पि य, सुएहि एयारिसगुणेहिं ॥ २१ ॥ सिद्धत्येण कुमारा, सिग्घं नाणाविहाइ सत्थाई । सिक्खाविया सपुण्णा, सबकलाणं च पारगया ॥ २२ ॥ न हु कोइ गुरू खेवं, वच्चइ सीसेसु सत्तिसुमहेसु । नह दिणयरो पभासइ, सुहेण भावा सचक्खूणं ॥ २३ ॥ देन्तो चिय उवएस, हवइ कयत्थो गुरू सुसीसाणं । विवरीयाण निरत्थो, दिणयरतेओ व उलुयाणं ॥ २४ ॥ एवं सबकलागम-कुसला लवण-ऽङ्कसा कुमारवरा । अच्छन्ति कीलमाणा, जहिच्छियं पुण्डरीयपुरे ॥ २५ ॥ सोमत्तणेण चन्द, निणिऊण ठिया रवि च तेएणं । वीरत्तणेण सकं, उदहिं गम्भीरयाए य ॥ २६ ॥ थिरयाए य नगिन्द, जमं पयावेण मारुयं गइणा । परिणिजिणन्ति हत्थि, बलेण पुहइं च खन्तीए ॥ २७ ॥ सम्मत्तभावियमणा, नज्जइ सिरिविजय-अमियवरतेया। गुरुजणसुस्सूसपरा, बीरा जिणसासणुजुत्ता ॥ २८ ॥ एवं ते गुणरत्तपवयवरा विन्नाणनाणुत्तमा, लच्छीकित्तिनिवाससंगयतणू रज्जस्स भारावहा । कालं नन्ति य पुण्डरीयनयरे भवा य भावट्टिया, जाया ते विमलंसुणिम्मलजसा सोयासुया विस्सुया ॥२९॥ __ ॥इइ पउमचरिए लवणङ्कसंभवविहाणं नाम सत्ताणउयं पत्वं समत्तं ।। भाववाली सीताने उसे देखा और प्रणाम किया। (१५-६) उत्तम श्रासन देकर आनन्दविभोर सीताने सिद्धार्थको सम्पूर्ण भावसे सर्वोत्तम आहार-पानी दिया । (२७) भोजनसे निवृत्त होने पर सुखासन पर बैठे हुए उससे सीताने पूछा। उसने अपना पर्यटन आदि कहा । (१८) वहाँ लघर और अंकुशतो देखकर अत्यन्त विस्मित उस बाल मुनिने उना वृत्तान्त पूछा। सीताने भी वह कह सुनाया। (१६) कारणसे अवगत अतिदयालु सिद्धार्थ बहुत ही करुणाभावसे रोती हुई सीताको देखकर दुःखित हुआ। २०) अष्टांगनिमित्तके जानकार सिद्धार्थने कहा कि ऐसे गुणवाले पुत्रोंके होते हुए तुम एक क्षणभरके लिए भी शोक मत करो। (२१) सिद्धार्थने पुण्यशाली कुमारोंको नानाविध शास्त्र जल्दी ही सिखा दिये। वे सब कलाओंमें निपुण हुए। (२२) जिस प्रकार सूर्य नेत्यालेको सब पदार्थ प्रासानीसे दिखलाता है. उसी प्रकार महान शक्तिशाली शिष्योंमें कोई भी गुरु खेद प्राप्त नहीं करता । (२३) सुशिष्योंको उपदेश देने पर गुरु कृतार्थ होता है, किन्तु जिस तरह उल्लू के लिए सूर्य निरर्थक होता है उसी तरह विपरीत अर्थात् कुशिष्यको उपदेश देने पर वह निरर्थक होता है। (२४) इस प्रकार सब कलाओं एवं शास्त्रों में कुशल कुमारवर लवण और अंकुश पौण्डरिकपुरमें यथेच्छ क्रीड़ा करते हुए रहते थे। (२५) सौम्यभावसे चन्द्रमाको, तेजसे सूर्यको, वीरतासे इन्द्रको और गम्भीरतासे समुद्रको उन्होंने जीत लिया। (२६) स्थिरतासे नगेन्द्र मेरुको, प्रतापसे यमको, गतिसे वायुको, बलसे हाथीको तथा क्षमावृत्तिसे पृथ्वीको उन्होंने जीत लिया। (२७) वीर एवं जिन शासनमें उद्यत वे सम्यक्त्वसे भावित मनवाले श्री एवं विजयके कारण अमित तेजसे युक्त, तथा गुरुजनोंकी सेवामें तत्पर जान पड़ते थे। (२८) इस तरह गुणरूपी रत्नोंसे सम्पन्न पर्वत सरीखे, विज्ञान एवं ज्ञानके कारण उत्तम, लक्ष्मी और कीर्तिके निवःसके योग्य शरीरको धारण करनेवाले, राज्यभारको वहन करने में समर्थ. भव्य (मोक्ष पानेकी योग्यतावाले) तथा धर्मभावमें स्थित वे पौण्डरिकपुर में कालनिर्गमन करते थे। इस प्रकार निर्मल यशवाले वे सीता-पुत्र विमल एवं विश्रुत हुए। (२६) ॥ पद्मचरितमें लवण और अंकुशके भवका विधान नामक सत्तानवेवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ १. सिक्खविया संपुण्णा-प्रत्य० । २. सुमुहेसु-प्रत्य। ३. थिरजोगेण णगि-प्रत्य०। ४. धीरा-प्रत्य० । ५. भारव्यहा-प्रत्य०। ६. भव्या भवंते ठिया-प्रत्य० । ७. एवं-मु०। ८. सरूववि०-मु० । 2-10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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