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________________ ९७. लवण-ऽङ्कुसुप्पत्तिपव्वं एवं चिय ताव इम, नायं अन्नं सुणेहि संबन्धं । लवण- सेणिय!, उप्पत्तिं राहवसुयाणं ॥ १ ॥ अह पुण्डरीयनयरे, ठियाएँ सीयाएँ गब्भबीयाए । आपण्डुरङ्गलट्ठी, सामलवयणा थणा नाया ॥ २ ॥ बहुमङ्गलसंपुण्णं, देहं अइविब्भमा गई मन्दा । निद्धा य नयणदिट्टी, मुहकमलं चेव सुपसन्नं ॥ ३ ॥ पेच्छइ निसासु सुविणे, कमलिणिदलपुडयविमलसलिलेणं । अभिसेयं कीरन्तं, गएसु अइचारुरूवेसु ॥ ४ ॥ मणिदप्पणे विसन्ते, निययमुहं असिवरे पलोएइ । मोत्तण य गन्धबं, सुणेइ नवरं धणुयसदं ॥ ५ ॥ चक् . देइ अणिमिसं, सीहाणं पञ्जरोयरत्थाणं । एवंविहपरिणामा, गमेइ सीया तहिं दियहे ॥ ६ ॥ एवं नवमे मासे. संपुण्णे सवणसंगए चन्दे । सावणपञ्चदसीए, सुयाण जुयलं पसूया सा ॥ ७ ॥ अह ताण वजनडो, करेइ जम्मूसवं महाविउलं । गन्धब-गीय-वाइय-पडपडह-मुइङ्गसद्दालं ॥ ८ ॥ पढमस्स कयं नामं, अणङ्गलवणो अणङ्गसमरूवो । तस्स गुणेहि सरिच्छो, बीओ मयणङ्कसो नाम ॥ ९ ॥ अह ताण रक्खणटुं, नणणीए सरिसवा सिरे दिन्ना । दोण्ह वि कण्ठोलइया, ससुवण्णा वग्घनहमाला ॥ १० ॥ एवं कमेण दोषि वि, रिङ्खण-चंकमणयाइ कुणमाणा । वड्वन्ति बालया ते, पञ्चसु धाईसु सन्निहिया ॥ ११ ॥ पत्ता सरीरविद्धि, विविहकलागणधारणसमत्था । जाया जणस्स इट्टा, अमरकुमारोवमसिरोया ॥ १२ ॥ ताणं चिय पुण्णेणं, सिद्धत्थो नाम चेल्लओ सहसा । पत्तो पुण्डरियपुर, विज्जाबलरिद्धिसंपन्नो ॥ १३ ॥ जो तिणि वि सञ्झाओ, गन्तूण वि मन्दरे जिणहराई । वन्दित्ता एइ पुणो, निययावासं खणद्वेणं ॥ १४ ॥ वय-नियम-संजमधरो, लोयाकयमत्थओ विसुद्धप्पा । निणसासणाणुरत्तो, सबकलाणं च पारगओ ॥ १५ ॥ हाथियों पर कमालिनीष्ट स्निग्ध थी भार वर्ण के हो गये। (२ में अन्य वृत्तान्त सुनो । (१) ह अपना मुख तलवार में देखता या पत्रपुटमें निर्मल जलसे किया जाताPALI (३) उसने रात्रिके समय ९७. लवण और अंकुश हे श्रेणिक ! इधर तो ऐसा हुआ। अब रामके पुत्र लवण और अंकुशकी उत्पत्तिके बारेमें अन्य वृत्तान्त सुनो। (१) पौण्डरिकनगरमें स्थित गर्भवती सीताकी देहयष्टि पीली पड़ गई तथा स्तन श्याम वर्णके हो गये । (२) उसकी देह अनेक मंगलोंसे पूर्ण थी, अत्यन्त विलासयुक्त उसकी गति मन्द थी, दृष्टि स्निग्ध थी और मुखकमल प्रसन्न था। (३) उसने रात्रिके समय स्वप्नमें अत्यन्त सुन्दर रूपवाले हाथियों पर कमलिनीके पत्रपुटमें निर्मल जलसे किया जाता अभिषेक देखा । (४) मणियोंके दर्पण होते हुए भी वह अपना मुख तलवारमें देखती थी और संगीतको छोड़कर धनुषका शब्द सुनती थी। (५) पिंजरेके भीतर रहे हए सिंहोंको वह अपलक नेत्रोंसे देखती थी। ऐसे परिणामवाली सीता वहां दिन बिताती थी। (६) इस प्रकार नौ महीने पूरे होने पर जब चन्द्रमा श्रवण नक्षत्रसे युक्त था तब श्रावणपूर्णिमाके दिन उसने पुत्रोंके युगलको जन्म दिया । (७) वनजङ्घने उनका नृत्ययुक्त संगीत, गान, वादन तथा ढोल और मृदंगकी पटु ध्वानिसे युक्त बहुत बड़ा जन्मोत्सव मनाया। (८) अनंगके समान रूपवाले पहलेका नाम अनंगलवण रखा और उसके मदनके गुणोंके समान दूसरेका नाम मदनांकुश रखा । (९) वहां उनकी रक्षाके लिए माताने शिरमें सरसों बिखेरे। दोनोंके गलोंमें सुवर्ण युक्त बाघनखकी माला पहनाई गई। (१०) इस तरह पाँच दाइयोंके साथ रहनेवाले वे बालक अनुक्रमसे रेंगना, चलना आदि करते हुए बढ़ने लगे। (११) शरीरवृद्धिको प्राप्त, वे विविध कलाओंके ग्रहण और धारणमें समर्थ तथा देवकुमारोंकी भाँति शोभायुक्त वे लोगोंके प्रिय हुए। (१२) उनके पुण्यसे विद्या, बल एवं ऋद्धिसे सम्पन्न सिद्धार्थ नामक एक शिष्य, जो तीनों सन्ध्याके समय मन्दर पर्वत पर जाकर और जिन मन्दिरोंमें वन्दन करके आधे क्षण में अपने आवासस्थान पर वापस ला जाता था, पौण्डरिक पुरीमें अचानक आ पहुंचा। (१३-४) व्रत, नियम एवं संयमको धारण करनेवाला मस्तक पर लोंच किया हुआ, जिनशासनमें अनुरक्त और सब कलाओंमें निपुण वह भिक्षाके लिए क्रमशः भ्रमण करता हुआ सीताके घरके पास आया। आदरयुक्त तथा विशुद्ध १. ०वा तहिं दि०-मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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