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________________ पउमचरियं [६६. २१निद्दोसाए वि महं, दोसं न तहा जणो पयासिहिइ । जह धम्मवज्जियस्स उ, नरवइ लज्जाविहीणस्स ॥ २१ ॥ एयं चिय एकभवे, दुक्खं होहिइ मए मुयन्तस्स । सम्मत्त-नाण-दसण-रहियस्स भवे भवे दुक्खं ॥ २२ ॥ लोए नरस्स सुलह, जुवइ-निही-विविहवाहणाईयं । सम्मईसणरयणं, दुलहं पि य रज्जलाभाओ ॥ २३ ॥ रज्जं भोत्तूण नरो, वच्चइ नरयं न एत्थ संदेहो । सम्मईसणनिरओ, सिवसुहसोक्खं लहइ धीरो ॥ २४ ॥ एवं चिय संदिटुं, सीयाए नेहनिव्भरमणाए । संखेवेण नराहिव!, तुज्झ मए साहियं सर्व ॥ २५ ॥ सामिय ! सहावभीरू, अहिययरं दारुणे महारण्णे । बहुसत्तभीसणरवे, जणयसुया दुक्करं जियइ ॥ २६ ॥ सेणावइस्स वयणं, सोऊणं राहवो गओ मोहं । पडियारेण विउद्धो, कुणइ पलावं पिययमाए ॥ २७ ॥ चिन्तेऊण पवत्तो, हा! कटुं खलयणस्स वयणेणं । मूढेण मए सीया, निच्छूटा दारुणे रणे ॥ २८ ॥ हा पउमपत्तनयणे!, हा पउममुही ! गुणाण उप्पत्ती । हा पउमगभगोरे !, कत्तो त्ति पिए ! विमग्गामि ॥ २९ ॥ हा सोमचन्दवयणे!, वायं मे देहि देहि वइदेहि ! । नाणसि य मज्झ हिययं, तुह विरहे कायरं निच्चं ॥ ३० ॥ निदोसा सि मयच्छी !, किवाविमुक्केण उज्झिया सि मए । रण्णे उत्तासणए, न य नजइ किं पि पाविहिसि ? ॥३१॥ हरिणि ब जूहभट्टा, असण-तिसावेयणापरिग्गहिया । रविकिरणसोसियङ्गी, मरिहिसि कन्ते महारणे ॥ ३२ ॥ किं वा वग्घेण वणे, खद्धा सीहेण वाइघोरेणं । किं वा वि धरणिसइया, अक्कन्ता मत्तहत्थीणं? ॥ ३३ ॥ पायवखयंकरेणं, जलन्तजालासहस्सपउरेणं । किं वणदवेण दड्डा, सहायपरिवज्जिया कन्ता ॥ ३४ ॥ को रयणनडीण समो. होइ नरो सयलजीवलोयंमि? । जो मज्झ पिययमाए, आणइ बत्ता वि विहलाए ॥ ३५ ॥ सकता है वह जिनधर्मको भी छोड़ सकता है। (२०) हे राजन् ! निर्दोष मेरा लोग उतना दोष नहीं कहेंगे जितना धर्मवर्जित और लज्जाहीनका कहेंगे। (२१) इस तरह मरने पर मुझे एक ही भवमें दुःख होगा, किन्तु सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शनसे रहितको तो भव-भवमें दुःख होगा (२२) मनुष्यको लोकमें युवतियाँ, खजाना विविध वाहन आदि सुलभ हैं, किन्तु राज्यलाभ की अपेक्षा भी सम्यग्दर्शन रूपी रत्न दुर्लभ है। (२३) इसमें सन्देह नहीं कि राज्यका उपभोग करके मनुष्य नरकमें जाता है, किन्तु सम्यग्दर्शनमें निरत धीर पुरुष तो मोक्षर खका आनन्द प्राप्त करता है । (२३) हे राजन् ! हृदय में स्नेहसे भरी हुई सीताने इस तरह जो संदेश दिया था वह सब मैंने आपसे संक्षेपमें कहा। २५) हे स्वामी ! स्वभावसे अत्यन्त भीरु सीता अनेक प्राणियोंकी भयंकर गर्जनावाले उस दारुण महावनमें कठिनाईसे जीयेगी। (२६) सेनापतिका ऐसा कथन सुनकर राम बेसुध हो गये। उपचारसे होशमें आने पर प्रियतमाके लिए वे प्रलाप करने लगे। (२७) वे सोचने लगे कि अफसोस है कि दुष्ट जनोंके वचनसे मूढ़ मैंने सीताको भयंकर जंगलमें छोड़ दिया। (२८) हा पद्मदलके समान नयनोंवाली! हा पद्ममुखी ! हा गुणोंके उत्पादनके स्थान सरीखी! हा पद्मके गर्भके समान गौर वर्णवाली प्रिये ! मैं तुझे कहाँ हूँ हूँ ! (२६) हा चन्द्र के समान सौम्य बदनवाली वैदेही! मुझे जवाब दे, जवाब दे ! तेरे विरहके कारण सदैव कातर रहनेवाले मेरे हृदयको तू जानती है । (३०) हे मृगाक्षी ! तू निर्दोष है। दयाहीन मैंने तुझे भयंकर जंगलमें छोड़ दिया है। मैं नहीं जानता कि कैसे तेरी रक्षा होगी ? (३१) हे कान्ते ! यूथभ्रष्ट हरिणीकी भाँति भूख और प्यासकी वेदनासे पीड़ित तथा सूर्यकी किरणोंसे शोषित शरीरवाली तू महारण्यमें मर जायगी। (३२) जंगलमें बाधने अथवा अत्यन्त भयंकर सिंहने तुझे खा लिया होगा, अथवा पृथ्वी पर सोई हुई तुझे मत्त हाथीने कुचल दिया होगा। (३३) सहायता न मिलने पर कान्ता क्या वृक्षोंका क्षय करनेवाले और जलती हुई हजारों ज्वालाओंसे व्याप्त दावानलसे जल गई होगी ? (३४) सम्पूर्ण जीव लोकमें रत्नजटी जैसा कौन पुरुष होगा जो व्याकुल मेरी प्रियतमाका समाचार तक लावे। (३५) १. द्धो, विलवइ सोए पियः-प्रत्यः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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