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________________ ४८६ पउमचरियं चिन्तेइ तो मणेणं, कस्स वि दुक्खस्स आगमं एयं । चक्खु साहेइ धुवं पुणो पुणो विष्फुरन्तं मे ॥ ३ ॥ एक्केण न संतुट्टो, नं पत्ता सायरन्तरे दुक्खं । दिवो अहेउयअरी, किं परमं काहिई अन्नं ? ॥ ४ ॥ भणिया भाणुमईए, किं व विसायं गया नणयधूए ! १ । नं जेण पावियवं तं सो अणुहवइ सुह- दुक्खं ॥ ५ ॥ गुणमाला भइ तओ, किं वि कयाए इहं वियक्काए । विरएहि महापूयं, जिणवरभवणाण वइदेहि ! || ६ || तो ते होही सन्ती, संजम -तव-नियम -सीलकलियाए । निणभत्तिभावियाए, साहूणं चन्दणपराए || ॥ भणिऊण एवमेयं, नणयसुया भणइ कईं एत्तो । भद्दकलसं ति नामं, आणवइ इमेण अत्थेणं ॥ ८ ॥ होऊण अप्पमत्तो, पइदियह देहि उत्तमं दाणं । लोगो वि कुणउ सबो, जिणवरपूयाभिसेयाई ॥ ९ ॥ सो एव भणियमेत्तो, दाणं दाऊण गयवरारूढो । घोसेइ नयरमज्झे, जं भणियं नणयधूया ॥ १० ॥ इह पुरवरीऍ लोगों, होऊणं सील-संजमुज्जुत्तो । कुणउ जिणचेइयाणं, अहिसेयादी महापूयं ॥ सोऊण वयणमेयं, जणेण सिग्घं निणिन्दभवणाई । उवसोहियाइ एत्तो, सबुवगरणेहि रम्माई ॥ खीर - दहि- सप्पिपउरा, पवत्तिया निणवराण अभिसेया । बहुमङ्गलोवगीया, तूररवुच्छलियनयसदा ॥ सीया विय जिणपूयं, करेइ तव नियम - संनमुज्जुत्ता । ताव य पया समस्या, पउम भासं समणुपत्ता ॥ जयसद्दकयारावा, पडिहारनिवेइया अह पविट्टा । आबद्धञ्जलिमउला, पणमइ परमं पया सबा ॥ अह तेण समालता, मयहरया जे पयाऍ रामेणं । साहह आगमकज्जं, मणसंखोभं पमोत्तूर्णं ॥ विजओ य सूरदेवो, महुगन्धो पिङ्गलो य सृलधरो । तह कासवो य कालो, खेमाई मयहरा एए ॥ अह ते सज्झसहियया, कम्पियचलणा न देन्ति उल्लावं । पउमस्स पभावेणं, अहोमुहा लज्जिया जाया ॥ संथाविऊण पुणरवि, पुच्छइ आगमणकारणं रामो । साहह मे वीसत्था, पयहिय सबं भउबेयं ॥ ११ ॥ १२ ॥ १३ ॥ १४ ॥ १५ ॥ Jain Education International १६ ॥ १७ ॥ १८ ॥ १९ ॥ । सोचने लगी कि बार बार फड़कती हुई मेरी यह आँख अवश्य ही किसी दुःखका आगमन कहती है । (३) समुद्रके बीच जो दुःख प्राप्त किया था उस एकसे सन्तुष्ट न होकर बिना कारण कार्य करनेवाला दैव दूसरा अधिक क्या करेगा ? (४) भानुमतीने कहा कि सीता ! तुम क्यों विषएस हो गई हो। जिसे जो सुख-दुःख पाना होता है, उसे वह पाता है । (५) तब गुणमालाने कहा कि यहाँ वितर्क करनेसे क्या फायदा ? हे वैदेही ! जिनवरके मन्दिरों में बड़ी भारी पूजा रचो। (६) तब संयम, तप, नियम एवं शीलसे युक्त, जिनकी भक्तिसे भावित तथा साधुओं को वन्दन करनेमें तत्पर तुम्हें शान्ति होगी । (७) इस प्रकार कहने पर सीताने भद्रकलश नामक कंचुकीसे कहा । उसने इस मतलबकी आज्ञा दी कि तुम अप्रमत्त होकर प्रतिदिन उत्तम दान दो और सब लोगोंको जिनवर की पूजा और अभिषेक यादिमें तत्पर करो । ( ८-१) इस तरह कहने पर दान देकर और हाथी पर सवार हो सीताने जो कहा था उसकी उसने नगरमें घोषणा की कि इस नगर में लोग शील एवं संयममें उद्यत हो जिनचैत्यों की अभिषेक आदि महापूजा करें। ( ११ ) यह वचन सुनकर लोगोंने शीघ्र ही रम्य जिनेन्द्रभवनों को सब उपकरणों से सजाया । (१२) जिनवरोंका प्रचुर दूध, दही और घीसे अभिषेक किये गये, बहुत से मंगलगीत गाये गए तथा वाद्योंकी ध्वनिके साथ जयघोष किया गया । (१३) तप, नियम और संयमसे युक्त सीताने भी जिन पूजा की। For Private & Personal Use Only [ ६३. ३ उस समय सारी प्रजा रामके पास आई । (१४) जयशब्दका उद्घोष करनेवाली तथा प्रतिहारीके द्वारा निवेदित सारी प्रजाने प्रवेश किया । उसने सिर पर हाथ जोड़कर रामको प्रमाण किया । (१५) उन रामने प्रजाके जो अगुए थे उन्हें कहा कि मनके संक्षोभका त्याग करके आगमन का प्रयोजन कहो । (१६) विजय, सूर्यदेव, मधुगन्ध, पिंगल, शूलधर, काश्यप, काल तथा क्षेम - आदि ये अगुए थे । (१७) हृदय में भीत और काँपते हुए पैरोंवाले वे बोलते नहीं थे । राम के प्रभाव से मुँह नीचा करके वे लज्जित हो गये । (१८) सान्त्वना देकर पुनः रामने उनके आगमनका कारण पूछा कि विश्वस्त हो तथा भय एवं १. अच्छि सा० - प्रत्य० । २. महुमत्तो पि० प्रत्य० । www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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