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________________ ६३. २] ६३. जणचिंतापव्वं दारेसु पुण्णकलसा, परिठविया जिणहराण रयणमया । वरचित्तयम्मपउरा, पसारिया पट्टया बहवे ॥ १९ ॥ ऊसविया धयनिवहा, रइयाणि वियाणयाइ बिबिहाई । मोत्तियओऊल्लाई, लम्बूसादरिससोहाई ॥ २० ॥ पूया कया महन्ता, नाणाविजलय-थलयकुसुमेहिं । सबाण जिणहराणं, अट्टावयसिहरसरिसाणं ॥ २१ ॥ तूराइ बहुविहाई, पहयाई मेहसरिसघोसाई । गन्धवाणि य विहिणा, महुरसराई पगीयाई ॥ २२ ॥ उवसोहिए समत्थे, उज्जाणे नन्दणोवमे रामो । पविसइ जुवइसमग्गो, इन्दो इव रिद्धिसंपन्नो ॥ २३ ॥ नारायणो वि एवं, महिलासहिओ जणेण परिकिण्णो । तं चेव वरुज्जाणं, उवगिज्जन्तो समणुपत्तो ॥ २४ ।। एवं जणेण सहिया, हलहर-नारायणा तहिं चेव । आवासिया समत्था, देवा इव भद्दसालवणे ।। २५ ॥ पउमो सीयाएँ समं, जिणवरभवणाण वन्दणं काउं । सद्द-रस-रूवमाई, भुञ्जइ देवो ब विसयसुहं ॥ २६ ॥ सबो वि नायरजणो, जिणवरपूयासमुज्जओ अहियं । जाओ रइसंपन्नो, तत्थुज्जाणम्मि अणुदियह ॥ २७ ॥ एवं जिणिन्दवरसासणभत्तिमन्तो, पूयापरायणमणो सह सुन्दरीसु । तत्थेव काणणवणे पउमो पहट्टो. पत्तो रई विमलकन्तिधरो महप्पा ॥ २८ ॥ ॥ इइ पउमचरिए जिणपूयाडोहेलविहाणं नाम बाणउयं पव्वं समत्तं ।। ९३. जणचिंतापव्वं अह तत्थ वरुज्जाणे, महिन्दउदए ठियस्स रामस्स । तण्हाइया पवत्ता, दरिसणकवी पया सबा ॥ १ ॥ एत्थन्तरंमि सीया, सुहासणत्थस्स पउमनाहस्स । साहेइ विम्हियमई, फुरमाणं दाहिणं चक्खु ॥ २ ॥ प्रचुर बहुतसे पट बाँधे गये। (१६) ध्वजसमूह फहराये गये। रत्नमय नानाविध वितान, मोतीसे भरे हुए प्रालंब ( लटकते हुए वस्त्र) तथा लम्बूप एवं दर्पणोंसे वे शोभित थे। (२०) अष्टापदके शिखरके समान अत्युन्नत सब जिनमन्दिरोंकी जलमें तथा स्थलमें पैदा होनेवाले पुष्पोंसे बड़ी भारी पूजा की गई। (२१) मेघके समान घोषवाले अनेक प्रकारके वाद्य बजाये गये तथा मधुर स्वरवाले गीत विधिवत् गाये गए। (२२) इन्द्रके समान ऋद्धिसम्पन्न रामने युवतियोंके साथ नन्दनवनके समान समग्ररूपसे अलंकृत उस उद्यानमें प्रवेश किया। (२३) इसीप्रकार स्त्रियोंके साथ. लोगोंसे घिरा हुआ गाया जाता नारायण (लक्ष्म) भी उसी उत्तम उद्यान में आ पहुँचा। (२४) इस प्रकार भद्रशाल वनमें रहने वाले देवों की भाँति राम और लक्ष्मण भी उसी उद्यान में सबके साथ ठहरे। (२५) सीताके साथ राम जिनमन्दिरोंमें वन्दन करके देवकी भाँति शब्द, रस और रूप आदिका उपभोग करने लगे। (२६) उस उद्यानमें जिनवरकी पूजामें उद्यत सभी नगरजन दिन-प्रतिदिन अधिक अनुरक्त हुए । (२७) इस प्रकार जिनेन्द्र के शासनमें भक्तियुक्त, पूजा में लीन मन्याले तथा विमल कान्तिको धारण करनेवाले आनन्दित महात्मा रामने उस उद्यानमें सुख प्राप्त किया । (२८) ॥ पद्मचरित में जिनपूजाका दोहद-विधान नामक बानवेवाँ पर्व समाप्त हुआ। ९३. लोगोंकी चिन्ता महेन्द्रोदय उद्यानमें जब राम ठहरे हुए थे तब तृपितकी भाँति दर्शन के लिये उत्कंठित सारी प्रजा वहाँ आई। (१) उस समय विस्मित बुद्धिवाली सीताने सुखासन पर स्थित रामसे फड़कती दाहिनी आँखके बारेमें कहा । (२) वह मनमें १. ०ण कणयमया-प्रत्यः। २. . हलाभिहाणं-प्रत्य० । ३. मणा फुरमा दाहिणं अच्छि-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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