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________________ ४६१ ८२.१२०] ५१. भुवणालंकारहात्थिपुव्वभवाणुकित्तगपव्वं घणकसिणकज्जलनिभो, संखुभियसमुद्दसरिसनिग्योसो। सियदसणो पवणनवो, वेएण कुलुत्तमो सूरो ॥ १०६ ॥ एरावणसमसरिसो सच्छन्दविहारिणो रिवुपणासो । अच्छन्तु ताव मणुया, खेयरवसभाण वि अगेज्झो ॥ १०७ ।। नाणाविहेसु कीलइ, सिहरनिगुञ्ज सु तरुसमिद्धेसु । अवयरइ माणससरं, लीलायन्तो कमलपुण्णं ॥ १०८ ।। कइलासपबयं पुण, वच्चइ मन्दाइणी विमलतोयं । करिणीसहस्ससहिओ, अणुभवइ नहिच्छियं सोक्ख ॥ १०९ ॥ सो तत्थ गयवरिन्दो, करिवरपरिवारिओ विहरमाणो । सोहइ वणमझगओ, गरुडो इव पक्खिसङ्घहिं ॥ ११० ॥ लाहिवेण दिट्टो, सो हु इमो गयवरो मयसणाहो । गहिओ य विरइयं से, भुवणालंकारनामं तु ॥ ३११ ॥ देवीसु समं सग्गे, रमिऊणं वरविमाणमज्झगओ । कीलइ करिणिसमग्गो, संपइ तिरिओ वि उप्पन्नो ॥ ११२ ॥ कम्माण इमा सत्ती, जं जीवा सबजोणिउप्पन्ना । सेणिय ! अइदुहिया विय, तत्थ उ अहियं धिइमुवेन्ति ।। ११३ ॥ चइउं सो अहिरामो, सागेयानयरिसामिओ जाओ । राया भरहो त्ति इमो, फलेण सुविसुद्धधम्मस्स ॥ ११४ ॥ मोहमलपडलमुक्को, भोगाण अणायरं गओ एसो । इच्छइ काऊण महा-पबजं दुक्खमोक्खत्थे ॥ ११५॥ जे ते जिणेण समय, पवजं गिहिऊण परिवडिया । चन्दोदय सूरोदय, लग्गा मारीइपासण्डे ॥ ११६ ॥ एए ते परिभमिया, संसारं भायरो सुइरकालं । सगकम्मपभावेणं, भरहगइन्दा इमे जाया ॥ ११७ ॥ चन्दो कुलंकरो जो, समाहिमरणेण जाओ सारङ्गो । सो हु इमो उप्पन्नो, भरहो राया महिड्डीओ ॥ ११८ ।। सूरोदओ य विप्पो, जो सो हु कुरङ्गओ तया आसि । कुच्छियकम्मवसेणं, संपइ एसो गओ जाओ ॥ ११९ ।। भन्तूण लोहखम्म, एसो हु गओ बलेण संखुभिओ । भरहालोए सुमरिय, पुवभवं उवसमे पत्तो ॥ १२० ।। नाऊणं एवमेयं चवलतडिसमं सबसत्ताण जीयं, संजोगा विप्पओगा पुणरवि बहवो होन्ति संबन्धिबन्धा । वर्णवाला, संक्षुब्ध करनेवाले समुद्रके जैसी गर्जना करनेवाला, सफेह दाँतोंसे युक्त, पवनकी गतिके समान वेगवाला, उत्तम कुलवाला और शूरवीर तथा इन्द्र के हाथी ऐरावत सरीखा, स्वच्छन्द विचरण करनेवाला और शत्रुका नाश करनेवाला वह मनुष्यों की तो क्या बात, श्रेष्ठ विद्याधरों द्वारा भी अग्राह्य था । (१०६-१०७) वृक्षोंसे समृद्ध शिखरवर्ती नानाविध निकुंजोंमें वह क्रीड़ा करता था और लीला करता हुआ कमलोंसे पूर्ण मानस-सरोवरमें उतरता था। (१०८) कैलास पर्वतपर और निर्मल जलवाली मन्दाकिनीमें वह जाता था। एक हजार हथिनियोंके साथ वह इच्छानुसार सुखका अनुभव करता था। (१०९) उत्तम हाथियोंसे घिरकर वहाँ उनके बीच विहार करता हुआ वह गजराज पक्षीसंघसे युक्त गरुड़की भाँति शोभित होता था। (११०) रावणने मदसे युक्त उस हाथीको देखा। पकड़कर उसका नाम भुवनालंकर रखा । (१११) स्वर्गमें उत्तम विमानमें रहा हुआ वह देवियोंके साथ रमण करता था। अब तिर्यंच रूपसे उत्पन्न होने पर भी हथिनियों के साथ क्रीड़ा करता था। (११२) हे श्रेणिक! कोंकी ऐसी शक्ति है कि सब योनियों में उत्पन्न जीव अत्यन्त दुःखित होने पर भी वहीं अधिक धैर्य पाते हैं। (११३) वह अभिराम देवलोकसे च्युत होकर विशुद्ध धर्मके फलस्वरूप साकेतनगरीका स्वामी यह भरत राजा हुआ है। (११४) मोहरूपी मलपटलसे मुक्त और भोगोंमें अनादर रखनेवाला यह दुःखके नाशके लिए महादीक्षा लेना चाहता है। (११५) जिनेश्वरके पास प्रव्रज्या लेकर जो चन्द्रोदय और सूर्योदय पतित हो गये थे और मरीचिके पासखण्डमें शामिल हुए थे, वे भाई सुचिर काल तक संसारमें भ्रमण करके अपने कर्मके प्रभावसे ये भरत और हाथी हुए हैं। (११६-७) जो चन्द्र कुलंकर और जो सारंग मृग था वह समाधिमरणसे महद्धिक राजा भरतके रूपमें उत्पन्न हुआ है। (११८) सूर्योदय ब्राह्मण तथा जो मृग उस समय था वह कुत्सित कर्मके कारण अब यह हाथी हुआ है। (११९) क्षुब्ध होकर लोहेके खंभेको तोडनेवाला यह जो हाथी है वह भरतको देखकर पूर्वभवका स्मरणकर उपशान्त हुआ है। (१२०) सब प्राणियोंका जीवन चंचल बिजलीके समान क्षणभंगुर होता है और अनेक प्रकारके संयोग एवं वियोग तथा सम्बन्धियोंके बन्धन उसमें होते हैं, ऐसा तुम १. चइओ मु०। २. मोहमलविप्पमुक्को मु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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