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________________ ४६० पउमचरियं [८२. ६०चन्दमुहस्स सयासे, मुणिवरवसहस्स अज्ज परमगुणो। धम्मो सुओ किसोयरि!, सिवसुहफलओ निययबन्धू ॥ ९० ॥ विसया विसं व देवी, परिणामदुहावहा महासत्त । तम्हा लएमि दिक्खं, जइ न कुणसि सोगसंबन्धं ॥ ९१ ॥ एवं च सिक्खयन्तं, देवी सिरिवद्धणं तओ सोउं । अह तक्खणम्मि चोही, संपत्तो मिउमई ताहे ॥ ९२ ॥ संसारभउबिम्गो, मुणिस्स पासम्मि चन्दवयणस्स । गिण्हइ जिणवरविहिय, पवज मिउमई एत्तो ॥ ९३ ॥ तप्पइ तवं सुघोरं, नहागर्म सील-संजमसमग्गो । मेरु ब धोरगरुओ, भमइ मही फासुयाहारो ॥ ९४ ॥ अवरो पबयसिहरे, नामेणं गुणनिही समणसीहो । चिट्ठइ चउरो मासा, वारिसिया विबुहपरिमहिओ ॥ ९५ ॥ साहू समत्तनियमो, अन्नद्देसं गओ नहयलेणं । तं चेव पवयवर, संपत्तो मिउमई तइया ॥ ९६ ॥ पविसइ भिक्खाहेडे, रम्म आलोयनयरनामं सो । समणो समाहियमणो, वन्दिजन्तो नणवएणं ॥ ९७ ॥ जंपइ जणो इमो सो, जो गिरिसिहरे सुरेहि परिमहिओ । साहू बहुगुणनिलओ, भयसोगविवजिओ'धीरो ॥ ९८ ।। भुञ्जावेइ जणो तं, सुसायआहार-पाणयादीहिं । सो तत्थ कुणइ मायं, इड्डीरसगारवनिमित्तं ॥ ९९ ॥ जो सो पवयसिहरे, सो हु तुम मुणिवरो भणइ लोगो । अणुमन्नइ तं वयणं, माइल्लो तिबरसगिद्धो ॥ १० ॥ एवं मायासल्लं, जेणं नालोइयं गुरुसयासे । तेण तुमे नागगई, बद्धं तिरियाउयं कम्मं ॥ १०१ ॥ सो मिउमई कयाई, काल काऊण तत्थ वरकप्पे । उववन्नो कयपुण्णो, जत्थऽभिरामो सुरो वसइ ॥ १०२॥ बहुभवकम्मनिबद्धा, एयाण निरन्तरं 'पिई परमा । आसि च्चिय सुरलोए, महिड्विजुत्ताण दोण्हं पि ॥ १०३ ॥ सुरवहुयामज्झगया, दिवङ्गयतुडियकुण्डलाभरणा । रइसागरोवगाढा, गय पि कालं न याणन्ति ॥ १०४ ॥ सो मिउमई कयाई, चइउं मायावसेण इह भरहे । सल्लइवणे निगुञ्ज, उप्पन्नो पबए हत्थी ॥ १०५ ॥ धर्म सना है । (E8-60) हे देवी! विषय विषतुल्य और परिणाममें दुःखावह होते हैं। अतएव यदि तुम शोक न करो तो मैं दीक्षा लू।(९१) इस तरह देवीको शिक्षा देते हुए श्रीवर्धनको सुना। तब मृदुमतिको तत्क्षण ज्ञान प्राप्त हुआ। (९२) संसारके भयसे उद्विग्न मृदुमतिने चन्द्रमुख मुनिके पास जिनवर-विहित दीक्षा ली। (६३) शील एवं संयमसे युक्त वह आगमके अनसार घोर तप करने लगा। मेरुके समान धीर-गम्भीर वह प्रासुक आहार करता हुआ पृथ्वी पर परिभ्रमण करने लगा। (६४) देवोंद्वारा स्तुति किये गये दूसरे गुणनिधि नामके श्रमणसिंह पर्वतके ऊपर वर्षाकालके चार महीने ठहरे हुए थे। (९५) नियम समाप्त होने पर वह आकाशमार्गसे दूसरे प्रदेशमें गये। तब उसी पर्वत पर मृदुमति आया । (६६) लोगों द्वारा वन्दित और मनमें समाधियुक्त उस श्रमणने आलोकनगर नामके सुन्दर नगरमें भिक्षाके लिए प्रवेश किया। (६७) लोग कहने लगे कि पर्वतके शिखर पर देवों द्वारा स्तुत, अनेक गुणोंके धामरूप, भय एवं शोकसे रहित और धीर जो साधु थे वे यही हैं। (EE) लोग उसे स्वादिष्ट आहार-पान आदि खिलाने लगे। ऋद्धि एवं रसकी लालसाके कारण वह माया करने लगा। (EE) लोग कहते कि पर्वतके शिखर पर जो मुनिवर थे वे आप ही हैं। मायावी और रसमें अत्यन्त गृद्ध वह उस कथनका अनुमोदन करता । (१००) चूँकि गुरुके पास मायारूपी शल्यकी तुमने आलोचना नहीं की, अतः तुमने नागगति और तियेच आयुष्यका कर्म बाँधा । (१०१) पुण्यशाली वह मृदुमति कभी मरकर उस उत्तम देवलोकमें उत्पन्न हुआ जहाँ अभिराम देव बसता था। (१०२) अनेक भवोंके कर्मसे बँधी हुई इनकी निरन्तर और उत्कृष्ट प्रीति रही, देवलोकमें भी अत्यन्त ऋद्धिसम्पन्न दोनोंकी वैसी ही प्रीति थी। (१०३) देवकन्याओंके बीच रहे हुए, दिव्य बाजूबन्द, त्रुटित (हाथका एक आभूषण-विशेष ), कुंडलके आभरणोंसे युक्त और प्रेम-सागरमें लीन वे बीते हुए समयको नहीं जानते थे । (१०४) वह मृदुमति कभी च्युत होकर मायाके कारण इस भरतक्षेत्रमें आये हुए लता आदिसे निबिड़ सल्लकीवनमें पैदा हुआ। (१०५) बादल और काजलके समान कृष्ण १. वीरो प्रत्य० । २. रई मु.। ३. महिड्ढिपत्ताण प्रत्य । ४. वहिया• प्रत्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001273
Book TitlePaumchariyam Part 2
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages406
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size11 MB
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