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पउमचरियं
एत्तो पावलो सो, पबज्जं गेण्हिऊण कालगओ । देवो पाणयकप्पे, होऊण चुओ भरहवासे ॥ पुहईपुरम्मि जाओ, नसहरपुत्तो नयाऍ नसकित्ती । निक्खमिय पिउसगासे, विजयविमाणे समुपनो ॥ तत्तो चुओ समाणो, जाओ सगरो त्ति चक्कवट्टि तुमं । चोइसरयणाहिवई, समत्तभरहाहिवो सूरो ॥ जेणऽन्तरेण दइओ, आवलिओ रम्भकस्स आसि पुरा । तेणऽन्तरेण तुज्झं, सहस्सनयणे अहियनेहो ॥ सोऊण चरियमेयं, निययं पिउसन्तियं हरिसियच्छो । थोऊण समाढत्तो, सब्भूयगुणेहि तित्थयरं ॥ एत्थं तु अणाहाणं, सत्ताणं नाह ! कारणेण विणा । उवयारपरो सि तुमं, किण्ण महच्छेरयं एयं ? ॥ नाह ! तुमं बम्भाणो, तिलोयणो संकरो सयंबुद्धो । नारायणो अणन्तो, तिलोयपुज्जारिहो 'अरुहो ॥ भणिओ रक्खसवइणा, भीमेणं मेहवाहणो ताहे । साहु कयं ते सुपुरिस ! नं सि निणं आगओ सरणं ॥ तो सुणसु मज्झ वयर्णं भय-सोगविणासणं हियकरं च । पच्छा य होइ पच्छं, कालम्मि य निबुई कुणइ ॥ अत्थेत्थ तुज्झ सत्तू, वेयड्ढे खेयरा बलसमिद्धा । तेहि समं चिय कालं, कह नेहिसि सुयण ! वीसत्थो ? ॥ लङ्कापुरी
निसुणे सायरवरे, विद्दुम-मणि - रयण किरणपज्जलिए । काणणवणेहि रम्मो, रक्खसदीवो त्ति नामेणं ॥ सत्तेव जोयणसया, वित्थिण्णो सबओ समन्तेणं । तस्स वि य मज्झदेसे, अत्थि तिकूडो त्ति वरसेलों ॥ नव जोयणाणि तुङ्गो, पन्नासं सबओ य वित्थिष्णो । सिहरं तस्स विरायइ, उब्भासेन्तं दस दिसाओ ॥ सिहरस्स तस्स हेट्टे, जम्बूणयकणगचित्तपायारा । लङ्कापुरि त्ति नामं, नयरी सुरसंपयसमिद्धा ॥
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नामके नगर में यशोधर राजा तथा जया रानीके पुत्र यशःकीर्तिके रूपमें पैदा हुआ। पिताके पास ही दीक्षा अंगीकार करके वह बाद में विजय नामक देवविमानमें उत्पन्न हुआ । (११६-१७) वहाँ से च्युत होने पर तुम चौदह रत्नोके अधिपति तथा समस्त भरतक्षेत्र के स्वामी शूर सगर चक्रवर्ती हुए हो । (१९१८) चूँकि पूर्व कालमें रम्भकको आवलिक प्रिय था, इसीलिए तुम्हारा सहस्रनयनमें अधिक स्नेह है । (११९) अपना तथा अपने पिताका ऐसा वृत्तान्त सुनकर आनन्दपूर्ण नेत्रोंवाला वह पारमार्थिक गुणों द्वारा भगवान्को इस प्रकार स्तुति करने लगा - (१२० )
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'हे नाथ ! आप अनाथ जीवों पर निष्कारण उपकार करनेमें तत्पर रहते हैं। इससे अधिक दूसरा आश्चर्य और क्या हो सकता है ? (१२१) हे नाथ! आप ही ब्रह्मा, त्रिलोचन शंकर, स्वयंबुद्ध, अनन्त नारायण एवं तीनों लोकों के लिये पूजनीय अई हैं ।' (१२२) उस समय वहाँ उपस्थित राक्षसपति भीमने मेघवाहन से कहा कि - 'हे सुपुरुष ! तुम जिनेश्वर भगवान् की शरण में आए हो वह तुमने अच्छा ही किया । (१२३) अब मेरा कहना सुनो। वह (शरण) भय एवं शोककी विनाशक, हितकर, बाद में पथ्यरूप प्रतीत होनेवाली तथा मरने पर मोक्षदायी है । (१२४) इस वैताढ्य में बलशाली विद्याधर तुम्हारे शत्रु हैं । हे सुजन ! उनके साथ विश्वस्त होकर तुम अपना समय अब कैसे व्यतोत करोगे ? (१२५)
लंकानगरी
इसलिये सुनो ! समुद्रके अन्दर विद्रुम, मणि एवं रत्नोंकी किरणोंसे देदीप्यमान तथा बाग-बगीचोंसे रम्य राक्षसद्वीप नामका एक द्वीप है । (१२६) वह चारों ओर सात सौ योजन विस्तीर्ण है । उसके मध्यदेशमें त्रिकूट नामका एक उत्तम पर्वत आया है । (१२७) वह नौ योजन ऊँचा और चारों ओर पचास-पचास योजन विस्तृत है। दसों दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ उसका शिखर शोभित हो रहा है । (१२८) उस शिखरके नीचे सोनेके विचित्र प्रकारोंवाली तथा देवताओंकी सम्पत्ति से समृद्ध ऐसी लंकापुरी नामकी नगरी आई है। (१२९) तुम अपने बान्धवजनों के साथ जल्दी ही वहाँ
१. अरुहा मु० । २. पथ्यम् ।
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