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५.१४४]
५. रक्खसर्वसाहियारो
बन्धवजणेण समय, सिग्धं गन्तूण तत्थ वीसत्थो । भय-सोगविप्पमुक्को, अभिणन्दन्तो सया वससु ॥ १३० ॥ एवं भणिऊण तेणं. रक्खसबाणा जलन्तमणिकिरणो। विजाहि समं दिन्नो. हारो देवेहि परिगडिओ ॥ १३१॥ पायालंकारपुर, धरणियलन्तरगयं च से दिन्नं । छज्जोयणमवगाद, वित्थिण्णं 'बारसऽद्धद्धं ॥ १३२॥ एवं रक्खसवइणा, भणिओ घणवाहणो सुपरितुट्टो । नमिऊण जिणवरिन्दं, तेण समं पत्थिओ लई ॥ १३३ ॥ पेच्छइ य तुङ्गतोरण-धवलट्टालयविचित्तपागारं । उज्जाण-दीहियाहि य, चेइय-भवणेहि अइरम्मं ॥ १३४ ॥ बन्धवजणेण सहिओ, जयसहग्घुटकलयलारावो । लङ्कापुरि पविठ्ठो, जिणभवणं आगओ राया ॥ १३५ ॥ भावेण विणयपणओ, काऊण पयाहिणं तिपरिवारं । थोऊण सिद्धपडिमा, रायगिहं पत्थिओ ताहे ॥ १३६ ॥ लङ्कापुरीएँ सामी, भीमेणं मेहवाहणो ठविओ । विज्जाहरसुसमिद्धं, भुञ्जइ रज्जं सुरिन्दो ब ।। १३७ ।।. किन्नरगीयपुरवरे, भाणुवईगब्भसंभवा कन्ना । घणवाहणस्स भज्जा, नामेण य सुप्पभा नाया ॥ १३८ ॥ अमरिन्दरूवसरिसो, पुत्तो घणवाहणस्स उप्पन्नो । सुप्पभदेवीतणओ, सो य महारक्खसो नाम ॥ १३९ ॥ एवं गयवइ काले, भत्तीराएण चोइओ सन्तो । घणवाहणो वि अनियं, वन्दणहेउं समणुपत्तो ॥ १४० ॥ सीहासणोवविट्टो. दिट्ठो तित्थंकरो विमलदेहो । नज्जइ स(सा)रयसमए, नहस्स मज्झट्टिओ सुरो ॥ १४१ ॥ थोऊण जिणवरिन्दं, सब्भूयगुणेहि मङ्गलसएहिं । तत्थेव य विणिविट्ठो, सुर-नरपरिसाएँ मज्झम्मि ॥ १४२ ॥ नाऊण कहन्तरयं, सगरो तित्थंकरं पणमिऊणं । पुच्छइ जिणवरसंखा, समतीया-ऽणागयाणं च ॥ १४३ ॥ कइ वा समइक्वन्ता, होहिन्ति य केत्तिया महापुरिसा । तिन्थयर-चक्कवट्टी, बलदेवा वासुदेवा य ? ॥ १४४ ।।
जाकर और इस तरह आश्वस्त एवं भय व शोकसे विमुक्त होकर सदा सुखपूर्वक बसो।' (१३०) इस प्रकार कहकर राक्षसपतिने इतर विद्याओंके साथ देवताओं द्वारा रक्षित तथा मणियोंकी किरणोंसे जाज्वल्यमान एक हार भी उसे प्रदान किया। (१३१) पृथ्वीतलके भीतर आया हुआ, छः योजन लम्बा तथा छः योजन चौड़ा पातालालंकारपुर (लंकानगरी) नामक नगर उसे दिया। (१३२) और राक्षसपतिके द्वारा कहने पर वह मेघवाहन अत्यन्त आनन्दित होकर और जिनवरको वन्दन करके उसके साथ लंकाकी ओर प्रस्थित हुआ। (१३३)
उसने ऊँचे तोरण, श्वेत अट्टालिकाओं, विचित्र प्राकार, उद्यान, बावड़ियों तथा चैत्यभवनोंसे अत्यन्त रमणीय लंकानगरी देखी। (१३४) 'जय जय' शब्दके उद्घोष द्वारा जिसके बारेमें कल-कल ध्वनि हो रही है ऐसा वह राजा अपने वान्धवजनोंके साथ लंकापुरीमें दाखिल हुआ। उसने दर्शनार्थ जिनमन्दिर में प्रवेश किया । (१३५) उसने भावपूर्वक तथा विनयके साथ वन्दन किया। तीन बार प्रदक्षिणा देकर और सिद्ध-प्रतिमाकी स्तुति करके वह राजप्रासाद में गया। (१३६) भीमने मेघवाहनको लंकापुरीके स्वामीपद पर प्रतिष्ठित किया। मेघवाहन विद्याधर भी अत्यन्त समृद्ध राज्यका देवताओं के इन्द्रकी भांति उपभोग करने लगा। (१३७) किन्नरगीतपुर नामके नगरमें भानुमतीके गर्भसे उत्पन्न सुप्रभा नामकी कन्या मेघवाहनकी पत्नी थी। (१३८) सुप्रभादेवोसे मेघवाहनको अमरेन्द्र के समान सुरूप महाराक्षस नामका पुत्र हुआ। (१३९) इस प्रकार समय व्यतीत होने पर भक्तिरागसे प्रेरित मेघवाहन श्री अजितनाथ भगवानको वन्दन करनेके लिए आया। (१४०) उसने निर्मलदेहवाले तीर्थकर भगवानको सिंहासनके ऊपर आसीन देखा। वे शरत्कालमें आकाशके मध्यमें स्थित सूर्यकी भांति प्रतीत होते थे । (१४१) वास्तविक गुणों द्वारा तथा सैकड़ों मंगलवचनोंसे जिनवरकी स्तुति करके वह वहीं देव एवं मनुष्योंकी परिषद्के बीच बैठा । (१४२) कथान्तरके ज्ञात होने पर सगर चक्रवर्तीने तीर्थकरको प्रणाम करके अतीत एवं अनागत जिनोंकी संख्याके बारेमें पूछा कि कितने तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव तथा वासुदेव जैसे महापुरुष हुए हैं और कितने भविष्य में होंगे? (१४३-४) इस पर जिनेश्वरने कहा-'ऋषभ नामके प्रथम तीर्थकर हो चुके हैं, जिन्होंने इस भरतक्षेत्रमें लोगोंको
१. षषडयोजनविस्तीर्णा-ऽऽयामम् । २. गतवति सति ।
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