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________________ ५.६०] ५. रक्खसर्वसाहियारो केएत्थ गया मोक्खं, अन्ने पुण वरविमाणवासेस । उववन्ना गुणपुण्णा, जिणवरधम्माणुभावेणं ॥ ४७ ।। अजितजिनचरितम्एवं ते परिकहिओ, वंसो विजाहराण संखेवं । एत्तो सुणसु नराहिव, बीयनिणिन्दस्स उप्पत्ती ॥ ४८॥ उसभजिणजम्मसमए, जे भावा आसि सुहयरा लोए । ओसरिऊण पवत्ता, आउ-बलुस्सेह-तव-नियमा ॥ ४९ ॥ एवं परंपराए, समइकन्तेसु पुहइपालेसु । साएयपुरवरीए, धरणिधरो नरवरो जाओ ॥ ५० ॥ तस्स यं गुणाणुरूवो, पुत्तो तियसंजओ समुप्पन्नो । तस्स वि य इन्दलेहा, भज्जा पुत्तो य जियसत्त् ॥ ५१ ॥ पोयणपुरम्मि राया, आणन्दो तस्स कमलमाल त्ति । महिला रूवपडागा, विजया य सुया वरकुमारी ।। ५२ ॥ परिणीया गुणपुण्णा, जियसत्तनराहिवेण कयपुण्णा । तियसंजओ वि सिद्धि, कइलासगिरिम्मि संपत्तो ।। ५३ ।। अह अन्नया कयाई, जाओ तित्थंकरो अजियसामी । देवेहिं तस्स सहसा, अहिसेयाई कयं सबं ॥ ५४ ॥ रजं काऊण तओ, उज्जाणे जुवइपंरिमिओ दट्ठ। पङ्कयवणं मिलाणं, वेरग्गमणो विचिन्तेह ।। ५५ ।। जह एयं पउमसरं, मयरन्दुद्दामकुमुमरिद्धिलं । होऊण पुणो निहणं, वच्चइ तह माणुसत्तं पि ॥ ५६ ॥ आपुच्छिऊण एत्तो, माया-पिइ-पुत्त-परियणं सबं । पुवविहाणेण जिणो, पवज्जमुवागओ धीरो ॥ ५७ ॥ दस य सहस्सा तह पत्थिवाण मोचण रायरिद्धीओ। निग्गन्था पवइया, जिणेण समयं महासत्ता ॥ ५८ ॥ छट्टोववासनियमे, साएयपुरम्मि बम्भदत्तेणं । दिन्नं फायदाणं, विहिणा बहुभेयसंजुत्तं ॥ ५९॥ अह बारसमे वरिसे, केवलनाणं तओ समुप्पन्नं । चोत्तीसं च अइसया, अट्ट महापाडिहेरा य ॥ ६० ॥ पुण्यशील राजा जिनवरके धर्मका आचरण करके उत्तम देवविमानों में उत्पन्न हुए। (४७) इस प्रकार संक्षेपसे विद्याधरोंके वंशके विषयमें मैंने तुमसे कहा। हे नरेन्द्र ! अब द्वितीय जिनेन्द्र श्री अजितनाथकी उत्पत्तिके बारेमें सुनो। (४८) भगवान अजितनाथ ऋषभ जिनवरके समयमें जो भाव ( पदार्थ ) लोकमें सुखकर थे वे सब अर्थात् आयुष्य, बल, ऊँचाई, तप व नियम कम होने लगे । (४९) इस प्रकार एकके बाद एक राजाओंके चले जाने पर साकेतपुरी नामकी उत्तम नगरीमें धरणिधर नामका एक उत्तम पुरुष हुआ । (५०) उसका त्रिदशंजय नामका गुणानुरूप पुत्र था। उसकी भार्या इन्द्रलेखा तथा पुत्र जितशत्रु था। (५१) पोतनपुरमें आनन्द नामका राजा था। उसकी कमलमाला नामकी अत्यन्त रूपवती पत्नी तथा विजया नामकी एक सुपुत्री थी । (५२) पुण्यशाली जितशत्रु राजाके साथ गुणसे परिपूर्ण उस कन्याका विवाह हुआ। त्रिदशंजयने कैलासपर्वत पर जाकर सिद्धि प्राप्त की। (५३) इसके अनन्तर कभी तीर्थकर अजित स्वामीका जन्म हुआ। देवोंने जल्दीसे आकर उनके अभिषेकादि सर्व कार्य किये । (५४) उसके पश्चात् उन्होंने राज्य किया। युवतियोंसे घिरे हुए उनका मन कमलवनको म्लान देखकर विरक्त हो गया और वह सोचने लगे-'जिस प्रकार मकरन्द व तीव्र गन्धवाले पुष्पोंसे समृद्ध पद्मसरोवर भी म्लान एवं नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार मानव-जीवन भी है। (५५-५६) ऐसा सोचकर माता, पिता, पुत्र एवं सब परिजनोंकी अनुज्ञा लेकर धीर जिनेश्वरने पूर्वोक्त विधिके अनुसार प्रव्रज्या अंगीकार की। (५७) जिनेश्वरके साथ महासत्त्वशाली दस हजार राजाओंने भी राज्यकी समृद्धिका परित्याग करके निर्ग्रन्थ (जैन) दीक्षा ली । (५८) षष्ठ (बेला) के उपवासवाले उन्हें साकेत पुरीमें ब्रह्मदत्तने विधिपूर्वक विविध प्रकारका प्रासुक दान दिया। (५९) इसके पश्चात् बारहवें वर्षमें उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। चौतीस अतिशय तथा आठ १. परितः। २. सविं महा-प्रत्य० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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