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पउमचरियं
[४.६७एवं च भणियमेत्ते, गणहरवसहो कहेइ भूयत्थं । निसुणेहि ताव नरवइ, एगमणो माहणुप्पत्ति ।। ६७ ॥ साएयपुरवरीए, एगन्ते नाभिनन्दणो भयवं । चिट्टइ सुसङ्घसहिओ, ताव य भरहो समणुपत्तो ॥ ६८ ॥ पणउत्तमङ्गमम्गो, करजुयलं करिय तस्स पामूले । तो भणइ चकबट्टी, वयणमिणं मे निसामेह ।। ६९ ॥ भयवं ! अणुग्गहत्थं, करन्तु समणा इमे समियपावा । भुञ्जन्तु मज्झ गेहे, परिसुद्धं फासुयाहारं ॥ ७० ॥ तो भणइ जिणवरिन्दो, भरह न कप्पइ इमो उ आहारो । समणाण संजयाणं, कीयगद्देसनिप्फण्णो ॥ ७१ ॥ एवं सुणित्त वयणं, राया चिन्तेइ तम्गयमणेणं । उम्गं तवोविहाणं चरन्ति समणा समियमोहा ॥ ७२ ॥ न य भुञ्जन्ति महरिसी, मह गेहे मग्गिया वि पुणरुत्तं । तो सावयाण दाणं, देमि फुडं अन्न-पाणाइ ।। ७३ ॥ एते वि य गिहिधम्मे, पञ्चाणु वयगुणेमु उवउत्ता । भुञ्जावेमि य बहुसो, होही दाणस्स पुण्णफलं ॥ ७४ ॥ सद्दाविया य तेणं, सायारचरित्तधारिणो सबै । तुरियं च समल्लीणा, मिच्छत्ताई नरा तइया ॥ ७५ ॥ न य ते रियन्ति भवणं, दट्ठ जव-वीहियङ्करे पुरओ। कागणिरयणेण तओ, सुत्तं चिय सावयाण कयं ।। ७६ ॥ तो अन्न-पाण-दाणाऽऽसणेमु संपूइयाण उप्पन्नं । गवं चिय अइतुङ्गं, वहन्ति इत्थं कयत्थ ऽम्हे ॥ ७७ ॥ मइसायरेण भणिओ, भरहनरिन्दो सहाए मज्झम्मि । जह जिणवरेण भणियं, तं एक्कमणो निसामेहि ॥ ७८ ॥ जाणं तुमे नराहिब ! सम्माणो पढमसावयाण कओ। ते वीरस्सऽबसाणे, होहिन्ति कुतित्थपासण्डा ॥ ७९ ॥ अलियवयणे सत्थं, काऊणं वेयनामधेयं ते । हिंसाभासणमित्तं, जन्नेसु पसू बहिस्सन्ति ॥ ८० ॥
विवरीयवित्तिधम्मा. आरम्भ-परिग्गहेसु अणियत्ता । सयमेव मूढभावा, सेस पि जणं विमोहन्ति ॥ ८१ ॥ किया है-ऐसा कहकर गर्व धारण करते हैं। (६६) इस प्रकार पूछने पर महान् गणधरने जो यथार्थ था वह इस प्रकार कहा-'हे नरपति ! ब्राह्मणोंकी उत्पत्तिके बारे में जो कुछ मैं कहता हूँ वह ध्यानपूर्वक सुनो । (६७)
साकेत नगरीमें संघके सहित नाभिनन्दन भगवान् एकान्त स्थानमें बैठे हुए थे। उस समय भरत वहाँ आए। (६८) चक्रवर्तीने सिर झुकाकर तथा उनके चरणों में दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि-'हे भगवन् ! मेरा कहना आप सुनिए । (६९) हे प्रभो! जिनके पाप शान्त हो गए हैं ऐसे ये श्रमण मुझपर अनुग्रहार्थ मेरे घर पर परिशुद्ध एवं निर्दीप आहार लें। (७०) इस पर जिनेन्द्र ने कहा-'हे भरत! जो आहार खास उनके उद्देश्यसे खरीदा गया हो अथवा बनवाया गया हो वह संयमधारी श्रमण ग्रहण नहीं कर सकते ।' (७१) भगवान् का ऐसा कथन सुनकर भरतने उस पर मनोयोगपूर्वक विचार किया कि-'जिनका मोह शान्त हो गया है ऐसे साधु उग्र तपश्चर्या करते हैं, बार-बार कहने पर भी वे महर्षि मेरे घर पर आहार नहीं करते, अतः मैं श्रावकोंको अन्न-पान आदिका दान उदारताके साथ दूं। ये भी पाँच अणुव्रत तथा इनके सहायक दूसरे गुणव्रत रूपी गृहस्थ धर्मका अनुपालन करते हैं। मैं उन्हें बार-बार खाना खिलाऊँ जिससे मुझे दानका पुण्यफल प्राप्त हो ।' (७२-७४) ऐसा सोचकर उसने गृहस्थ-आचारका पालन करनेवाले सभी लोगोंको बुलाया। तुरन्त ही मिथ्यात्वी तथा दूसरे लोग वहाँ इकट्ठे हो गए। (७५) वे (गृहस्थाचारका पालन करनेवाले लोग) जो तथा धानके अंकुर सम्मुख देखकर राजभवन की पार नहीं जाते थे। इसपर भरतने काकिणीरत्न द्वारा श्रावकोंके लिए सूत्रका निर्माण किया। (७६) तब अन्न, पान एवं आसन द्वारा पूजित उन्हें बहुत ही घमण्ड हो आया कि अब तो हम कृतार्थ हो गए हैं। (७७) परिषदके बीच मतिसागरने भरत राजासे कहा-'जिनवरने जैसा कहा है वह तुम ध्यान देकर सुनो । (७८) हे राजन् ! जिन प्रथम श्रावकोंका तुमने सम्मान किया है वे वीर भगवान्का अवसान होनेपर नास्तिक एवं पाखण्डी हो जाएँगे । (७९) मिथ्या वचनोंसे युक्त वेद नामक शास्त्रका निर्माग करके तथा मात्र हिंसाका उपदेश देकर यज्ञोंमें पशुओंका वध करेंगे । (८०) विपरीत वृत्ति (आचार ) एवं धर्मवाले तथा आरम्भ ( पाप कर्म) व परिग्रहों से निवृत्त नहीं होनेवाले वे स्वयं तो मूढ़ हैं ही, दूसरे लोगोंको भी मूढ़ बनाते हैं । (८१) ऐसा कथन सुनकर राजा ऋद्ध हुआ और आज्ञा दी कि उन सबको नगरसे निर्वासित
१. प्रणतोत्तमाजानः। २. कृत्वा ।
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