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________________ ४. लोगट्ठिइ-उसभ-माहणाहियारो बाहुबली वि महप्पा, उप्पाडिय केवलं तवबलेणं । निट्टवियअट्ठकम्मो, दुक्खविमोक्खं गओ मोक्खं ॥ ५५ ॥ भरतस्य ऋद्धिःभरहो वि चक्कवट्टी, एगच्छत्तं इमं भरहवास । भुञ्जइ भोगसमिद्धं, इन्दो इव देवलोयम्मि ॥ ५६ ॥ विज्जाहरनयरसमा, गामा नयरा वि देवलोयसमा । रायसमा गिहवइणो, धणयसमा होन्ति नरवइणो ॥ ५७ ॥ चउसटि सहस्साई, जुबईणं परमरूवधारीणं । बत्तीसं च सहस्सा. राईणं बद्धमउडाणं ॥ ५८ ॥ मत्तवरबारणाणं, चउरासीइं च सयसहस्साई । तावइया परिसंखा, रहाण धय-छत्तचिन्धाणं ॥ ५९॥ अट्ठारस कोडीओ, तुरयाणं पवरवेगदच्छाणं । किंकरनरनारीणं, को तस्स करेज परिसंखा ॥ ६०॥ चोद्दस य महारयणा, नव निहओऽणेगभण्डपरिपुण्णा । जल-थलरयणावासा, रक्खिज्जन्ते सुरगणेहिं ॥ ६१ ॥ पुत्ताण य पञ्च सया, अमरकुमारोवभोगदुल्ललिया । भरहस्स चक्कवइणो, रज्जविभूई समणुपत्ता ॥ ६२ ॥ जस्स य जीहाण सर्य, बुद्धिविभागो हवेज वित्थिण्णो। सो विमणूसो न तरइ, तस्स कहेउं सयलरज ॥ ६३ ॥ ब्राह्मणानामुत्पत्तिःअह एवं परिकहिए, पुणरवि मगहाहिवो पणमिऊणं । पुच्छइ गणहरवसह, मणहरमहुरेहि वयणेहिं ।। ६४ ॥ वण्णाण समुप्पत्ती, तिण्हं पि सुया मए अपरिसेसा । एत्तो कहेह भयवं, उप्पत्ती सुत्तकण्ठाणं ॥ ६५॥ हिंसन्ति सबजीवे, करेन्ति कम्म सया मुणिविरुद्धं । तह विय वहन्ति गवं, धम्मनिमित्तम्मि काऊणं ॥ ६६ ।। तपोबलसे केवलज्ञान प्राप्त किया और आठों प्रकारके कर्मोंका विनाश करके दुःख रहित मोक्ष प्राप्त किया । (५५) भरतका वैभववर्णन चक्रवर्ती भरत भी भोगोंसे समृद्ध एवं एकत्र इस भरतक्षेत्रका देवलोकमें इन्द्रकी भाँति उपभोग करने लगा। (५६) इस भरतक्षेत्रमें गाँव विद्याधरोंके नगरोंके समान थे और नगर देवलोकके तुल्य थे। यहाँ गृहपति राजाके समान शोभित होते थे तथा राजा कुबेरके समान दानी थे। (५७) भरतके अन्तःपुरमें ६४ हजार अत्यन्त रूपवती स्त्रियाँ थी; ३२ हजार मुकुटधारी राजा उनके आधिपत्यमें थे;८४ शतसहस्र (अर्थात् लाख) मदोन्मत्त हाथी, ध्वजा एवं छत्रोंसे चिह्नित इतनी ही संख्याके (अर्थात् ८४ लाख) रथ तथा अत्यन्त वेगवान व दक्ष १८ करोड़ घोड़े उनके पास थे। उनके दास-दासियोंकी गणना तो कौन कर सकता है ? (५८-६०) उनके चौदह महारत्र, नौ निधि' एवं अनेक प्रकारके पदार्थों से परिपूर्ण जल-स्थलवर्ती रनों के आवासों को रक्षा देवगण करते थे। (६१) देवोंके कुमारोंके सदृश विलासमें पाले पोसे गए भरत चक्रवर्तीके पाँच सौ पुत्रोंने राज्यविभूति प्राप्त की । (६२) यदि किसी के पास सौ जीभ हों और अत्यन्त विशाल बुद्धि वैभव हो तो वह मनुष्य भी उनके समग्र राज्यका वर्णन नहीं कर सकता । (६३) ब्राह्मणवर्णकी उत्पत्ति. इस प्रकार कहने पर मगधाधिप श्रेणिकने पुनः गणधरोंमें श्रेष्ठ ऐसे गौतम मुनिको प्रणाम करके मनोहर एवं मधुर बचनसे पूछा हे भगवन् ! मैंने तीनों वर्गों की उत्पत्ति पूर्णरूपसे सुनी। अब आप ब्राह्मणोंकी उत्पत्तिके बारेमें कहें । (६४-६५) यद्यपि वे सभी जीवोंकी हिंसा करते हैं तथा मुनिजन के आचरणसे विरुद्ध सर्वदा कार्य करते हैं तथापि 'धर्मके निमित्त ऐसा १. (१) नैसर्प (पाम आदि सनिवेशोंका इसमें समावेश होता है।) (२) पाण्डक ( विविध धान्योंकी पूर्ति करनेवाली), (३) शंख (भृत्य, काय्य. भाषाकी उत्पादक ), (४) पिंगलक (आभूषणोंकी पूर्ति करनेवाली ), (५) सर्वरन (इसमें सेनापति भादि १४ रनोंका समावेश होता है।), (६) महापद्म ( वस्त्रोंकी पूर्ति करनेवाली), (७) काल ( समय, शिल्प एवं कृषिका ज्ञान करानेवाली ), (6) महाकाल (लोहा, मणि आदि धातुओं व रनोंको निधि ), तथा (९) माणवक ( अस्त्र-शस्त्रों की पूर्ति करनेवाली )-ये चक्रवर्तीकी नौ निधियाँ मानी गई हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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