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५. २.]
५. रक्खसवंसाहियारो
८२ ॥
८३ ॥
८४ ॥
सोऊण वयणमेयं परिकुविओ नरवई भणइ एवं । सिग्धं चिय नयराओ, सबे वि करेह निद्देसा ॥ लोगेण हम्ममाणा, सरणं तित्थंकरं समल्लीणा । तेण य निवारिया ते, पत्थरपहरेयु हम्मन्ता ॥ मा हणमुपुत्त ! एए, जं उसभजिणेण वारिओ भरहो । तेण इमे सयल च्चिय, वुच्चन्ति य माहणा लोए ॥ जे विय ते पढमयरं, पबज्जं गेण्हिऊण परिवडिया । ते वकलपरिहाणा, तावसपासण्डिणो जाया ॥ ८५ ॥ ताण य सीस-पसीसा, मोहन्ता जणवयं कुसत्थेमु । भिग्गङ्गिरमादीया, जाया बीजं वसुमईए || ८६॥ एसा ते परिकहिया, उप्पत्ती माहणाण भूयत्थं । एत्तो सुणसु नराहिव, पुरदेवजिणस्स निबाणं ॥ ८७ ॥ भयवं तिलोयनाहो, धम्मपदं दरिसिऊण लोगस्स । अट्टावयम्मि सेले, निवाणमणुत्तरं पत्तो ॥ भरो वि चकवट्टी, तिणमिव चइऊण रायवरलच्छी । जिणवरप पडिवन्नो, अबाराहं सिवं पत्तो ॥ एवं मए सेणिय ! तुज्झ सिट्टा, लोगट्टिई पुचजणाणुचिण्णा । सात्तो विमलप्पहावा, चत्तारि नामेहि नरिन्दसा ॥ ९० ॥
८८ ॥ ८९ ॥
॥ इति पउमचरिए लोगट्टिइ उसभ-माहणा हिगारो नाम चउत्थो उद्देसओ समत्तो ।।
चत्तारि महावंसा, नरवर पुहइम्मि जे इक्खाग पढमवंसो, बिइओ सोमो य
५. रक्खसवं साहियारो
उ विक्खाया। ताणं पुण बहुभेया, हवन्ति अवरस्स संजुत्ता ॥ १ ॥ होइ नायबो । विज्जाहराण तइओ, हवइ चउत्थो उ हरिवंसो ॥ २ ॥
कर दो। (६२) लोगों द्वारा विताड़ित वे तीर्थंकरकी शरण में आए। उन्होंने पत्थरोंका प्रहार करनेवाले उन लोगों को रोका । (८३) 'हे पुत्र ! इन्हें मा हण ( मत मार ) - इस प्रकार कहकर ऋषभ जिनेश्वरने भरतको रोका, अतः वे सब लोकमें 'माण' (ब्राह्मण ) कहलाए। (८४) जो सर्व प्रथम प्रव्रज्या लेकर फिर अध:पतित हुए उन्होंने वल्कल धारण किया और इस तरह तापस व पाखण्डी बने । (८५) उन्हीं के भृगु, अंगिरस आदि शिष्य-प्रशिष्य कुशास्त्रों में लोगोंको मूर्ख बनाते रहे। वे पृथ्वीपर बीज रूप हुए अर्थात् उनसे अनेकविध धर्म पंथों की परम्पराएँ चलीं । (६)
भ. ऋषभदेव तथा भरतका निर्वाण
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यह मैंने तुझे सचमुच ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति कैसे हुई है इसके बारेमें कहा। अब, हे राजन् ! पुरदेव जिन (ऋऋषभदेव) के निर्वाणके बारेमें तुम सुनो। (८७) त्रिलोकनाथ भगवान् ने लोगोंको धर्म-मार्ग दिखलाकर अष्टापद पर्वतके ऊपर सर्वोत्तम निर्वाणपद प्राप्त किया। (८८) भरत चक्रवर्तीने भी तिनकेकी भाँति उत्तम राजलक्ष्मीका त्याग करके जिनवर के मार्गका अनुसरण किया और अव्याबाध सुख प्राप्त किया ।
इस प्रकार, हे श्रेणिक ! पूर्वपुरुषों द्वारा विहित लोकस्थिति मैंने तुमसे कही । अब आगे निर्मल प्रभाववाले चार राजवंशों के बारे में तुम सुनो ।
। पद्मचरितमें ‘लोकस्थिति ऋषभ ब्राह्मण अधिकार' नामक चतुर्थ उद्देशक समाप्त हुआ ।
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५. राक्षसवंश
हे नरपति ! इस पृथ्वी पर जो चार महावंश विख्यात हैं उनके दूसरोंके साथ के सम्पर्कके कारण अनेक भेद होते हैं । (१) इन चार वंशों में प्रथम इक्ष्वाकुवंश, द्वितीय सोमवंश, तृतीय विद्याधरवंश एवं चतुर्थ हरिवंश है । (२)
१. सत्थेहिं प्र
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