________________
३२
पउमचरियं
१७ ॥
१८ ॥
झायन्तस्स भगवओ, एवं घाइक्खएण कम्माणं । लोगा - ऽलोगपगासं, केवलनाणं समुत्पन्नं ॥ उप्पन्नम्मि य नाणे, उप्पज्जइ आसणं निणिन्दस्स । छत्ताइछत्त चामर, तहेव भामण्डलं विमलं ॥ कप्पहुमो यदिबो, दुन्दुहिघोसं च पुप्फवरिसं च । सबाइसय समग्गो, जिणवरइविं समगुपत्तो ॥ नाऊण समुप्पत्ति, केवलनाणस्स आगया देवा । काऊण जिणपणामं, उवविद्या संन्निवेसेगु ॥ ऋषभजिनदेशना
१९ ॥
२० ॥
२१ ॥
२२ ॥
२३ ॥
भणियं च गणहरेणं, भयवं जीवा अणन्तसंसारे । परिहिण्डन्ति अणाहा, ताणुत्तारं परिकहि ॥ अह साहिउं पयत्तो, जलहरगम्भीर महुरनिग्घोसो । सुरमणुयमज्झयारे, दुविहं धम्मं निणवरिन्दो ॥ पञ्च य महबयाई, समिईओ पञ्च तिण्गि गुत्तीओ । एसो हु समणधम्मो, जोगविसेसेण बहुभेओ ॥ पञ्चाणुबयजुत्तो, सत्तहि सिक्खावएहि परिकिण्णो । एसो वि सावयाणं, धम्मो उद्देसविरयाणं ॥ धम्मेण लहइ जीवो, सुर- माणुसपरमसोक्खमाहप्पं । दुक्खसहस्सावासं, पावइ नरयं अहम्मेणं ॥ मेहेण विणा वुट्ठी, न होइ न य वीयवज्जियं सस्सं । तह धम्मेण विरहियं, न य सोक्खं होइ जीवाणं ॥ नइ विहु तवं विहिं, करन्ति अन्नाणिया पयत्तेणं । तह वि हु किंकरदेवा, हवन्ति चइया तओ तिरिया ||२७||
२४ ॥
२५ ॥
२६ ॥
इस तरह ध्यान करते हुए भगवान्के चारों घातिकर्मका नाश होनेपर लोक एवं अलोकको प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । ( १७ ) केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर जिनेन्द्रकी ऋद्धिके सूचक सर्वअतिशय आसन, मस्तकके ऊपर छत्र, चामर, निर्मल भामण्डल, दिव्य कल्पवृक्ष, दुन्दुभिका घोष तथा पुष्पवर्षा - ये प्रातिहार्य उत्पन्न हुए । ( १८ - १९) केवल ज्ञानकी उत्पत्तिका वृत्तान्त जानकर देव आए और भगवान्को वन्दन करके अपने-अपने स्थानपर बैठ गए । ( २० ) इसके पश्चात् गणधरने भगवान् से पूछा - 'हे भगवन् ! इस अनन्त संसार में जीव अनाथ होकर भटकते रहते हैं । तरणोपाय आप बतावें ।' (२१)
उनका
भगवान् ऋषभदेवका उपदेश
बादल के समान गम्भीर एवं मधुर निर्घोषके साथ जिनवरेन्द्रने देवता एवं मनुष्योंके बीच दो प्रकारका धर्म कहना शुरू किया । (२२) पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति – यह श्रमणधर्म ( साधुओंका आचार ) है । मनवचन- कायकी प्रवृत्ति रूप योगविशेषसे इनके अनेक भेद होते हैं । (२३) पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतोंसे युक्त धर्म देशविरत श्रावकों का होता है । (२४) धर्मसे जीव एवं मनुष्यों के उत्तमोत्तम सुख तथा कीर्ति संपादन करता है, जबकि अधर्मसे हजारों दुःखोंके आवास रूप नरकमें बह जाता है । (२५) जिस प्रकार मेघके बिना वृष्टि नहीं होती और बीजके बिना अन्न नहीं होता, उसी प्रकार धर्मके बिना जीवोंको सुख उपलब्ध नहीं होता । ( २६ ) यदि अज्ञानी पुरुष उत्कृष्ट तप तपें तो भी देवों किंकर रूपसे ही उत्पन्न होते हैं और वहाँ से च्युत होनेपर तिर्यञ्चरूपसे जन्म लेते हैं । (२७) वे हज़ारों
Jain Education International
[ ४. १७
१. विउ प्रत्य० । २. स्वस्थानेषु । ३. विवेकयुक्त प्रवृत्तिको सामति कहते हैं । इसके पाँच भेद हैं- (१) किसी भी जन्तुको क्लेश न हो इसलिये सावधानीपूर्वक चलना ईर्यासमिति है । (२) सत्य, हितकारी, परिमित और सन्देहरहित बोलना भाषासमिति है। 1 जीवन-यात्रा में आवश्यक हों ऐसे निर्दोषसाधनको जुटानेके लिये सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना एषणासमिति है । (४) वस्तुमात्रको भलीभाँति देखकर एवं प्रमार्जित करके लेना या रखना आदाननिक्षेपसमिति है । (५) जहाँ जन्तु न हों ऐसे प्रदेशमें देखकर एवं प्रमार्जित करके ही अनुपयोगी वस्तुओं को डालना उत्सर्गसमिति है । ४ बुद्धि तथा श्रद्धापूर्वक मन, वचन एवं कायको उन्मार्गसे रोकनेको तथा सन्मार्गमें लगानेको गुप्ति कहते हैं। इसके तीन भेद हैं- (१) किसी भी चीज के लेने व रखने में अथवा बैठने, उठने व चलने आदिमें कर्त्तव्य-अकर्त्तव्यका विवेक हो, ऐने शारीरिक व्यापारका नियमन करना हो कायगुप्ति है । (२) बोलने के प्रत्येक प्रसंगपर या तो वचनका नियमन करना या प्रसंगानुसार मौन धारण करना वचनगुप्ति है। (३) दुष्ट संकल्प एवं अच्छे-बुरे मिश्रित संकल्पका त्याग करना और अच्छे संकल्पका सेवन करना हो मनोगुप्ति है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org