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________________ ४.४१] ४. लोगट्टिइ-उसभ-माहणाहियारो ते भवसहस्सपउरे, संसारे चाउरङ्गमग्गम्मि । दुक्खाणि अणुहवन्ता, अणन्तकालं परिभमन्ति ॥ २८ ॥ जिणवरधम्म काऊण, निवुया होन्ति केइ अहमिन्दा। कप्पालयाहिवत्तं, अबरे पावन्ति दढधम्मा ॥ २९ ॥ जे वि य निग्गन्थाणं. थुई पउज्जन्ति सबभावेणं । ते तस्स फलगुणेणं, न य कुगइपहं पबजन्ति ॥ ३० ॥ सोऊण धम्मवयणं, जिणवरकहियं नरा-ऽमरसमूहा । सम्मत्तलद्धबुद्धी, संवेगपरायणा मुइया ॥ ३१ ॥ केइत्थ समणसीहा, हवन्ति ववगयपरिम्गहा-ऽऽरम्भा । पञ्चाणुबयजुत्ता, केइ पुण सावया जाया ॥ ३२ ॥ एवं सुर-नरवसहा. कहावसाणे जिणं पणमिऊणं । सबै परियणसहिया, गया य निययाइँ ठाणाइं ॥ ३३ ॥ विहरइ जत्थ जिणिन्दो, सो देसो सग्गसन्निहो होइ। जोयणसयं समन्ता, रोगादिविवजिओ रम्मो ॥ ३४ ॥ अह उसहसेणपमुहा, चउरासीयं तु गणहरा तस्स । उप्पन्ना य सहस्सा, तावइया चेव समणाणं ॥ ३५ ॥ ताव य चकहरतं, संपत्तं भरहराइणा सयलं । हयगयजुवइसमग्गो, चउदसरयणाहियो धोरो ॥ ३६॥ उसभजिणस्स भगवो, पुत्तसयं चन्दसूरसरिसाणं । समणतं पडियन्नं, सए य देहे निरवयक्खं ॥ ३७॥ तक्खसिला' महप्पा, बाहुबली तस्स निच्चपडिकूलो । भरनरिन्दस्स सया, न कुणइ आणा-पणामं सो ॥ ३८ ॥ अह रुट्ठो चकहरो, तस्सुवरिं सयलसाहणसमग्गो । नयरस्स तुरियचवलो, विणिम्गओ सयलबलसहिओ ॥ ३९ ॥ पत्तो तक्खसिलपुरं, जयसद्दग्घुटकलयलारावो । जुज्झस्स कारणत्थं, सन्नद्धो तक्खणं भरहो ॥ ४०॥ बाहुबली वि महप्पा, भरहनरिन्दं समागयं सोउं । भडचडयरेण महया. तक्खसिलाओ 'विणिज्जाओ ।। ४१ । जन्मवाले संसारमें तथा चार गतिरूप चौराहोंमें दुःख अनुभव करते हैं और अनन्त काल तक भटकते रहते हैं। (२८) जिन धर्मका अनुपालन करके कई लोग अहमिन्द्रके जैसे सुखका अनुभव करते हैं और धर्ममें दृढ़ दूसरे लोग सौधर्म आदि कल्पलोकका अधिपति पद भी प्राप्त करते हैं । (२९) जो समग्र भावके साथ निर्ग्रन्थ मुनियोंकी स्तुति करते हैं वे इसके फलस्वरूप कुगतिके मार्गपर प्रयाण नहीं करते।' (३०) भगवान्का ऐसा धर्मप्रवचन सुनकर देव एवं मनुष्योंके समूह अत्यन्त मुदित हुए। उन्होंने सम्यक्त्व धारण किया तथा वे संवेगपरायण हुए। (३१) उनमें से कुछ लोग परिग्रह एवं आरम्भ-समारम्भको त्याग करके श्रेष्ठ श्रमण हुए तथा दूसरे कई लोग पाँच अणुव्रत धारण करके श्रावक बने । (३२) प्रवचनके अनन्तर अपने परिजनके साथ सभी उत्तमदेव भगवान्को वन्दन करके अपने-अपने स्थानों पर गए । (३३) ___ जिनेन्द्र ऋषभदेव जहाँ विहार करते थे वह देश स्वर्गतुल्य हो जाता था और चारों ओर सौ योजन तक रोगादिसे रहित एवं रम्य प्रतीत होता था। (३४) उनके ऋषभसेन आदि चौरासी गणधर थे तथा चौरासो हजार साधु थे। (३५) भरत-बाहुबली संघर्ष तथा बाहुबलीको प्रव्रज्या उसी समय भरत राजाने समग्र चक्रवर्तीपद प्राप्त किया। वह धीर राजा अश्व, गज एवं युवती आदि समग्र चौदह रत्नोंका अधिपति हुआ। (३६) भगवान ऋषभजिनेश्वरके चन्द्र एवं सूर्य सदृश सौ पुत्रोंने दीक्षा ग्रहण की। वे सब अपने शरीरमें अनासक्त थे । (३७) तक्षशिलामें महान बाहुबली रहता था। वह सर्वदा भरत राजाका विरोधी था और उनकी आज्ञाका पालन नहीं करता था। (३८) अतः चक्रधर भरत उसपर ऋद्ध होकर सम्पूर्ण साधनों तथा सम्पूर्ण सेनाके साथ नगरसे बाहर निकले और तेजीसे उसकी ओर अभियान शुरू किया। (३९) भरत तक्षशिला पहुँचे और तत्क्षण युद्ध करनेके लिये तैयार हो गए। उस समय 'जय' शब्दके उद्घोषका कलकल शब्द सर्वत्र फैल गया। (४०) महात्मा बाहुबली भी भरत राजाका आगमन सुनकर सुभटोंकी महती सेनाके साथ तक्षशिलामेंसे बाहर निकला । (४१ ) उस समय बल एवं १. विनिर्यातः । २. सेनापति, गृहपति, पुरोहित, अश्व, वर्द्धकि, ( सूत्रधार-शिल्पी ), गज, स्त्री, चक्र, छत्र, चर्म, मणि, काकिणी (एक रत्नविशेष), खड्ग तथा दण्ड ये चक्रवर्तीके चौदह रत्न हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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