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४. १६]
४. लोगट्टिइ-उसभ-माहणाहियारो चन्दो ब सोमवयणो. तेएण दिवायरो व दिप्पन्तो। लम्बियकरम्गजुयलो, सिरिवच्छविहसियसरीरो ॥ ४॥ वरहार-मउड-कुण्डल-मणि-मोत्तियपट्ट-चामराईणि । उवणेइ जणवओ से, न तेसु चित्तं समल्लियइ ॥ ५॥ केइत्थ गय-तुरङ्गम-रहवर-रयणाइमण्डणाडोवा । पुरओ ठवेन्ति तुट्ठा, चलणपणामं च काऊणं ॥ ६ ॥ सबङ्गसुन्दराओ, कन्नाओ पुण्णचन्दवयणाओ। देन्ति जणा सोममणा, भिक्खासणं अयाणन्ता ॥ ७ ॥ जं जं उवणेइ जणो, तं तं नेच्छइ जिणो विगयमोहो। लम्बन्तजडाभारो. नरवइभवणं समणुपत्तो ॥ ८ ॥ पासायतलत्थो विय, राया दहण जिणवरं एन्तं । संभरिय पुबजम्म, पायब्भासं समल्लीणो ॥ ९ ॥ श्रेयांसगृहे ऋषभस्य भिक्षाप्राप्तिःकाऊण य 'तिक्खुत्तो, पयाहिणं सयलपरियणसमग्गो । चलणेसु तस्स पडिओ, हरिसवसुभिन्नरोमञ्चो ॥ १० ॥ अह रयणभायणत्थं, अग्धं दाऊण सबभावेणं । चलणजुयलप्पणामं, करेइ विमलेण भावणं ॥ ११ ॥ संमजिओवलित्ते, उद्देसे तस्स परमसद्धाए । सेयंसनरवरिन्दो, इक्खुरसं देइ परितुट्टो ॥ १२ ॥ अह वाइउं पयत्तो, वाओ सुहसीयलो सुरहिगन्धो । पडिया य रयणवुट्टी, कुसुमेहि समं नहयलाओ ॥ १३ ॥ घुटुं च अहो दाणं, दुन्दुहिघणगुरुगहीरसद्दालं । पत्तो परमब्भुदयं, वरकल्लाणं नरवरिन्दो ॥ १४ ॥ तो अमर-चारणगणा, भणन्ति साधु त्ति परमपुरिस ! तुमे । धम्मरहस्स महाजस ! बीयं चकं समुद्धरियं ॥१५॥ एवं काऊण जिणो, पवत्तणं दाणवन्तचरियाए । सयडामुहउज्जाणे, पसत्थझाणं समारूढो ॥ १६ ॥
सौम्य था तथा सूर्यकी भाँति वह दमक रहा था। उनके दोनों हाथ लम्बे थे और शरीर श्रीवत्सके लांछनसे विभूषित था। (४) लोग उत्तम हार, मुकुट, कुण्डल, मणि, मोती, रेशमी वस्त्र तथा चामर आदि लाए परन्तु उनका मन उनमें लगता नहीं था। (५) कई लोग चरणों में प्रणाम करके आनन्दमें आकर उनके सम्मुख हाथी, घोड़े तथा उत्तम रत्नोंसे मण्डित रथ उपस्थित करते थे, सौम्य मनवाले दूसरे लोग भिक्षा द्वारा अन्न प्राप्तिके उनके अभिग्रहको न जानकर पूर्णिमाके समान सुन्दर मुखवाली तथा सर्वांग सुन्दर कन्याएँ देते थे। (६-७) जो मोहरहित हैं तथा जिनकी जटाओंका भार नीचे लटक रहा है ऐसे जिनेश्वर भगवानके सम्मुख जो कुछ लाया जाता था उसकी वे स्पृहा नहीं रखते थे। इस प्रकार विहार करते हुए वे राजाके प्रासादके पास पहुँचे। (८) राजा श्रेयांस द्वारा अपभको दान -
प्रासादके ऊपरसे राजाने जिनवरको आते देखा। अपना पूर्वभव याद करके वह भगवानके चरणों के पास हाजिर हुआ।। ९) समग्र परिजनके साथ तीन प्रदक्षिणा देकर आनन्दविभोर व रोमांचित शरोरयुक्त राजा उनके चरणोंमें जा गिरा। (१०) सम्पूर्ण भावके साथ रनपात्रोंमें लाया गया अध्य प्रदान करके राजाने निर्मल भावसे भगवान्के चरणयुगलमें प्रणाम किया । (११) साफ किए हुए तथा पोते हुए प्रदेशपर अत्यन्त हर्षित श्रेयांस राजाने परम श्रद्धापूर्वक इनुग्सका दान किया। (१२) उस समय सुम्बदायी, शीतल एवं सुगन्धित वायु बहने लगी और आकाशमेंसे पुप्पोंके साथ साथ रत्नोंकी भी वृष्टि हुई। (१३) दुन्दुभिके गहरे और ऊँचे स्वरके साथ 'अहो दान' ऐसी घोषणा हुई। राजा भी उत्तम कल्याण एवं परम अभ्युदयको प्राप्त हुआ। (१४) तब देवों और चारणोंके समूहोंने ऐसी उद्घोषणा की कि-'बहुत अच्छा किया। हे परमपुरुष! हे महायश! तुमने धर्मरूपी रथके दूसरे चक्रका उद्धार किया है।' (१५) केवलज्ञानकी उत्पत्ति
इस प्रकार दानधर्मका प्रवर्तन करके भगवान शकटामुख उद्यानमें गए और प्रशस्त ध्यानमें लीन हुए। (१६)
१. त्रिकृत्वः । २. वातुम् ।
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